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________________ जीवाजीवाधिकार भावार्थ- परमार्थनय का यदि सर्वथा यह आशय लिया जाय कि जीव शरीर और रागादिक से सर्वथा भिन्न है, तो जैसे पुद्गल के घात से हिंसा नहीं होती उसी तरह एकेन्द्रिय, विकलत्रय तथा असंज्ञी - संज्ञी जीव के घात से भी हिंसा नहीं होगी और हिंसा के अभाव में बन्ध भी नहीं होगा। इसी तरह रागादि तो जीव के सर्वथा हैं ही नहीं, यह माना जाय तो रागादिक के निवारण के लिये व्रत, तपश्चरण आदि का जो उपदेश है वह सर्वथा विफल होगा। मोक्ष के कारणों का अभाव होने से मोक्ष का भी अभाव हो जायगा, अतः व्यवहारनय से आत्मा का ही शरीर है और अशुद्ध निश्चयनय से रागादिक आत्मा के ही चारित्रगुण के विकार हैं। द्रव्यप्राण— पञ्च इन्द्रियाँ, मन, वचन, काय ये तीन बल, श्वासोच्छ्वास तथा आयु ये यथासम्भव एकेन्द्रियादि जीवों के जानना चाहिये । अर्थात् एकेन्द्रिय के चार प्राण होते हैंस्पर्शनेन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास । द्वीन्द्रिय जीव के स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ, कायबल और वचन बल तथा आयु और श्वासोच्छ्वास ये छह प्राण होते हैं, त्रीन्द्रिय जीव के उक्त छह तथा घ्राणेन्द्रिय इस तरह सात प्राण होते हैं, चतुरिन्द्रिय जीव के उक्त सात तथा चक्षुरिन्द्रिय इस तरह आठ प्राण होते हैं, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के श्रवणेन्द्रिय और होने से नव प्राण होते हैं और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के मनोबल अधिक होने से दश प्राण होते हैं । व्यवहार में इन प्राणों के संयोग से जीव संसार में जीता है और इनका वियोग होने से मरण अवस्था को प्राप्त होता है। निश्चय से सुख, सत्ता, चैतन्य और बोध ये प्राण जीव के हैं। ८३ अब विचार करो, जब ये दश प्राण पुद्गल से जायमान होने के कारण पुद्गल के ही हैं तब इनके घात से आत्मा का घात कैसे माना जावे? और आत्मा का घात न होने में हिंसा का मानना निरर्थक है । पर यह कहना या मानना ठीक नहीं है क्योंकि इनके घात में संक्लेश परिणाम होते हैं और वे ही संक्लेश परिणाम हिंसा के कारण हैं। यह प्राण तो अतिसान्निध्य की वस्तु है, पुत्रादिकों के वियोग में जीवों के आताप परिणाम देख जाते हैं। अथवा पुत्रादि भी दूर रहो, धनादि पदार्थों के नष्ट होने पर आत्मा दुःखी होता है। परमार्थ से हिंसा का कारण, हिंसा करनेवाले का कषायभाव है। परकी हिंसा हो या न हो, प्रमत्तयोग के सद्भाव में हिंसा होती है। अतएव श्रीगुरुओं भवति। यदा पुनर्व्यवहारनयो न भवति तदा शुद्धनिश्चयनयेन त्रसस्थावरजीवा न भवन्तीति मत्वा निःशङ्कोपमर्दनं कुर्वन्ति जनाः । ततश्च पुण्यरूपधर्माभाव इत्येकं दूषणं तथैव शुद्धनयेन रागद्वेषमोहरहितः पूर्वमेव मुक्तो जीवस्तिष्ठतीति मत्वा मोक्षार्थमनुष्ठानं कोऽपि न करोति ततश्च मोक्षाभाव इति द्वितीयं च दूषणम् । तस्माद् व्यवहारनयव्याख्यानमुचितं भवतीत्यभिप्राय: ।। ४६ ।। तात्पर्यवृत्तिः । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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