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समयसार
गाथासूत्र कहते हैं
ववहारस्स दरीसणमुवएसो वगिणदो जिणवरेहिं । जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादयो भावा ।।४६।।
अर्थ- ये अध्यवसानादिक सब भाव जीव हैं ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने जो उपदेश कहा है वह व्यवहारनय का मत है अर्थात् श्री जिनेन्द्र देव ने अध्यवसानादिक सम्पूर्ण भावों को व्यवहारनय से जीव के हैं, ऐसा कहा है।
विशेषार्थ- ये सम्पूर्ण अध्यवसानादिक भाव जीव हैं, यह जो समस्त पदार्थों के जाननेवाले सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है वह व्यवहारनय का मत है। यद्यपि व्यवहारनय अभूतार्थ है तो भी जिस प्रकार म्लेच्छों को समझाने के लिये म्लेच्छ भाषा का अङ्गीकार करना उचित है उसी प्रकार व्यवहारी जीवों को परमार्थ का प्रतिपादक होने से तीर्थ की प्रवृत्ति के निमित्त अपरमार्थ होने पर भी व्यवहारनय का दिखलाना न्यायसंगत है। अर्थात् व्यवहारनय सर्वथा असत्य नहीं है। अत: उसके आलम्बन से पदार्थ का प्रतिपादन करना उचित है। अन्यथा व्यवहार के बिना परमार्थनय से जीव शरीर से सर्वथा भिन्न दिखाया गया है, इस दशा में जिस प्रकार भस्म का नि:शङ्क उपमर्दन करने से हिंसा नहीं होती उसी प्रकार त्रसस्थावरजीवों का नि:शङ्क उपमर्दन करने से हिंसा नहीं होगी और हिंसा के न होने से बन्ध का अभाव हो जायगा, बन्ध के अभाव से संसार का अभाव हो जायगा। इसके अतिरिक रागी, द्वेषी और मोही जीव बन्ध को प्राप्त होता है उसे ऐसा उपदेश देना चाहिये कि जिससे वह राग, द्वेष मोह से छूट जावे, यह जो आचार्यों ने मोक्ष का उपाय बताया है वह व्यर्थ हो जावेगा, क्योंकि परमार्थ से जीव, राग, द्वेष, मोह से भिन्न ही दिखाया जाता है। जब भिन्न है तब मोक्ष के उपाय स्वीकार करना असंगत होगा और इस तरह मोक्ष का भी अभाव हो जायगा।
१. व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोऽपि
तीर्थप्रवृत्तिमिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव, तमन्तरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बन्धस्याभावः। तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः।।४६।।
- अमृतचन्द्राचार्यकृतात्मख्याति-टीका। यद्यप्ययं व्यवहारनयो बहिर्द्रव्यालम्बनत्वेनाभूतार्थस्तथापि रागादिबहिर्द्रव्यालम्बनरहितविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्वावलम्बनसहितस्य परमार्थस्य प्रतिपादकत्वाद् दर्शयितुमुचितो
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