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जीवाजीवाधिकार
में आ रहा है। साता और असाता रूप से व्याप्त तीव्र तथा मन्दत्व गुण से भेद को प्राप्त हुआ जो कर्मों का अनुभाग है वही जीव है ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि सुख और दुःख से भिन्न चैतन्यस्वभाववाला जीव स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा तत्त्वज्ञानियों के अनुभव में आ रहा है। किन्हीं महानुभावों का कहना है कि मज्जितावस्था में जैसे दो पदार्थों की एक विजातीय अवस्था भासमान होती है ऐसे ही आत्मा और कर्म इन दोनों को जो मज्जितावस्था अर्थात् मिश्र दशा है वही जीव है, सो इनका यह कहना प्रमाण से बाधित है क्योंकि चैतन्य स्वभाव के द्वारा जीव का भिन्न रूप से अनुभव होता है। इसी तरह किन्हीं वादियों का यह कहना कि जिस तरह आठ काठ के संयोग का नाम खाट है उसी तरह आठ कर्मों का संयोग ही जीव है, ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार आठ काठ के संयोग से निर्मित खाटपर शयन करनेवाले पुरुष का खाट से पृथक् अनुभव होता है उसी तरह आठ कर्मों से भिन्न चैतन्य स्वभाववाले जीव का अनुभव पृथक् होता है।
इस प्रकरण में पुद्गल से भिन्न आत्मा का अपलाप करनेवाले वादियों को साम्यभाव से समझना चाहिये, क्योंकि विवाद करने से पक्ष-पुष्टि की प्रबलता होने से, समझना तो दूर रहा, प्रत्युत दोष हो जाता है। जब सब जीव चेतनागुण वाले हैं और सभी जीव संसार सम्बन्धी दुःख से भीरु हैं तब उन्हें वह मार्गप्रदर्शन करना उचित है जिससे उन्हें शान्ति मिले। जिसे कामलारोग है वह जीव शङ्ख को पीला कहता है। अब आप ही बताइये, कामलारोगी यदि शङ्ख को पीला कहता तो उस अवस्था में उसका वैसा कहना क्या मिथ्या है? यद्यपि विषय की अपेक्षा वह ज्ञान मिथ्या है परन्तु अन्तर्जेयाकार की अपेक्षा भी क्या मिथ्या है? अत: उसका कामलारोग जावे ऐसा उपाय करना योग्य है। केवल उसे मिथ्याज्ञानी कहने से न आपको लाभ है और न उसे। उसका रोग तो दूर करने का प्रयास न किया जावे और उस अवस्था में यह कहा जावे कि तुम्हारा ज्ञान मिथ्या है तो वह कदापि सन्मार्ग पर नहीं आ सकता। इसी प्रकार मिथ्यात्व दशा में यह जीव यदि शरीरादिक को आत्मा माने तो उस दशा में उसे बुरा-भला कहना उसके मिथ्यात्व को पुष्ट करना है। अत: जहाँ तक बने उसे साम्यभाव से पदार्थप्रणाली की अवगति कराकर समीचीन मार्ग में लाने का प्रयत्न करना तत्त्वज्ञानियों का कर्त्तव्य है। उससे उपेक्षा कर जीव की अवहेलना करना क्या श्रेयोमार्ग के पथिकों को उचित है? संभव है, आपके सुमधुर सत्य उपदेश से वह मिथ्यात्व से च्युत होकर सम्यग्दर्शन का पात्र हो जावे। श्रीअमृतचन्द्र स्वामी ने कहा है-'इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धि प्रति विप्रतिपन्न: साम्नैवैवमनुशास्यः' अर्थात् इस प्रकरण में पद्गल से भिन्न आत्मा की उपलब्धि के प्रति विवाद करनेवाले पुरुष को शान्ति से ही इस प्रकार समझाना चाहिये। किस
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