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________________ ८० समयसार तरह समझाना चाहिये? यह कलशा द्वारा कहते हैं मालिनीछन्द विरम किमपरेणाऽकार्यकोलाहलेन ___ स्वयमपि निभृतः सन् पश्य षण्मासमेकम् । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलाद्भिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धि ति किञ्चोपलब्धिः।।३४।। अर्थ- रुको, व्यर्थ के विभिन्न कोलाहल से क्या साध्य है? तूं स्वयं ही निश्चल होकर छह माह तक एक आत्मतत्त्व का अवलोकन कर-उसीका अभ्यास कर। फिर देख कि पुद्गल से भिन्न तेजवाले आत्मतत्त्व की हृदयरूपी सरोवर में उपलब्धि होती है या अनुपलब्धि। भावार्थ- अकार्य कोलाहल से साध्य की सिद्धि नहीं होती, अत: व्यर्थ के वितण्डावाद से विरक्त होओ तथा अपने आप निश्चलवृत्ति को स्वीकार कर छह मास पर्यन्त हृदयरूपी सरोवर में पुद्गल से भिन्न तेजवाले चैतन्यपुरुष का अवलोकन करो, नियम से उसकी प्राप्ति होगी, अनुपलब्धि की आशङ्का मत करो। पुरुषार्थ ही आत्मतत्त्व की उपलब्धि में कारण हैं। आज तक हम उस तत्त्व को कठिन-कठिन सुनकर वञ्चित रहे। बतलाओ तो सही, जिसके द्वारा संसार चल रहा है और जिसके प्रभाव से ही संसार में नाना मतों की सृष्टि हुई। जिसके द्वारा ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश की कल्पना हुई और जिसके द्वारा ही इन कल्पना जालों को असत् ठहराया गया, उसी के जानने में हमें नाना प्रकार की कठिनाई बताई जावे, यह सब हमारी दुर्बलता है। जो इन सब कल्पनाओं का स्रष्टा है वही आत्मदेव है, उसके आभ्यन्तर में जो विकृत भाव हो रहे हैं उन्हें त्यागकर हमें अपने चैतन्यमात्र स्वरूप की रक्षा करना चाहिये। शुद्ध स्वरूप के उत्पन्न करने की चेष्टा करना आवश्यक नहीं। आवश्यक यह है कि उसमें जो विकार आ गया है उसे त्याग देना चाहिये। जैसे जब वस्त्र में स्नेह का सम्बन्ध हो जाता है तब उस वस्त्र की धूलि आदि के सम्बन्ध से मलिनावस्था हो जाती है। उस समय जो बुद्धिमान् मनुष्य हैं वे उस वस्त्र में परपदार्थ के सम्बन्ध से जो स्निग्धता आ गई थी उसे हटाते हैं। उसके हटने से वस्त्र की स्वच्छता का विकास स्वयमेव हो जाता है। इसी तरह आत्मा में परपदार्थ के संसर्ग से जो राग-द्वेष-मोहरूप मलिन परिणति हो रही है तथा जिसके द्वारा यह आत्मा अनन्त संसार के दु:खों का पात्र बन रहा हैं, सर्वप्रथम उसी मलिन परिणति को त्यागना चाहिये। उसके जाते ही देखोगे कि आत्मा स्वयं शान्ति का पिण्ड है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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