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जीवाजीवाधिकार
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नवीन और पुरानी अवस्था के भेद से प्रवृत्ति में आ रहा जो शरीर है वही जीव है, क्योंकि उससे अतिरिक्त जीव देखने में नहीं आता। किसी ने कहा भी है
न जन्मनः प्राङ् न च पञ्चतायाः
____परो विभिन्नेऽवयवे न चान्तः। विशन्न निर्यन्न च दृश्यतेऽस्माद्
भिन्नो न देहादिह कश्चिदात्मा।। -(धर्मशर्माभ्युदयमें पूर्वपक्ष)। अर्थात् इस संसार में जन्म से पहले और मरने के बाद तथा हाथ, पैर आदि अवयव के कट जानेपर, भीतर प्रवेश करता अथवा भीतर से बाहर निकलता हुआ कोई जीव शरीर से भिन्न दिखाई नहीं देता है। ___ इस तरह नया और जीर्ण शरीर ही जीव है, ऐसा कितने ही वादी कहते हैं।
संसार पुण्य और पाप के विपाक से ही पूरितावस्थ हो रहा है। अत: कर्मविपाक ही जीव है क्योंकि शुभ और अशुभ भावों को छोड़कर भिन्नरूप से किसी जीवतत्त्व की उपलब्धि नहीं होती, ऐसा बहुत से वादियों का मन्तव्य है।
कितने ही वादियों का यह मत है कि साता और असाता के भेद से युक्त कर्मों का अनुभाग ही संसार में देखने में आता है। जब साताकर्म का अनुभाग आता है तब सुख और जब असाता कर्म का अनुभाग आता है तब दु:ख होता है। अत: सुख और दुःख को छोड़कर अन्य जीव की सत्ता अनुभव में नहीं आती है।
कोई कहते हैं कि जिस प्रकार मज्जितावस्था में दही और खांड मिलकर एक भासमान होते हैं उसी प्रकार आत्मा और कर्म इन दोनों की मिली अवस्था को ही जीवशब्द से व्यवहृत करते हैं, क्योंकि उस अवस्था को छोड़कर अन्य कोई जीव नहीं है, यदि होता तो अनुभव में आता।
अर्थक्रिया में समर्थ जो कर्मसंयोग है वही जीव है। जिस प्रकार आठ काठों का संयोग ही खट्वा है उसी प्रकार आठ कर्मों का संयोग ही जीव है, इनसे अतिरिक्त कोई भिन्न जीव नहीं है, ऐसा बहुत से वादियों का मत है।
इसी प्रकार और भी अनेक वादी परको आत्मा शब्द से व्यहत करते हैं। परन्तु वे सब विपरीतबुद्धि वाले हैं, अतएव परमार्थवादी नहीं हैं, ऐसा निश्चय के जानने वाले कहते हैं।।३९,४०,४१,४२,४३।।
ये सब मिथ्यावादी क्यों हैं? इसी का आगे आचार्य उत्तर देते हैं
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