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________________ ७६ समयसार हआ करती हैं। जैसे—मानसरोवर का एक हंस दैवयोग से एक कूप पर पहुंच गया। कूप का मण्डूक आगन्तुक हंस को देखकर पूछता है-महाशय! कहाँ से आपका आगमन हुआ? हंस कहता है-हिमालय मध्यस्थित मानसरोवर से आया हूँ। तब वह मण्डूक पूछता है-कितना बड़ा मानसरोवर है? हंस ने उत्तर दिया-बहुत भारी है। मेण्डक ने एक पांव पसार दिया, क्या इतना बड़ा है? हंस ने कहानहीं भाई, बहुत भारी है। तब दूसरा पांव फैला दिया, क्या इतना बड़ा है? हंस ने कहा- नहीं, वह बहुत विस्तार से है। तब मेण्डक ने सर्वाङ्ग फैला दिया, क्या इतना विपुल है? हंस ने कहा-भाई, उसका विस्तार क्षेत्र बहुत विस्तृत है। तब मेण्डक समस्त कूप में भ्रमण कर कहने लगा, यदि अधिक-से-अधिक होगा तो इतना होगा, यदि इससे भी विपुल है जो केवल कहने की बात है, है नहीं। इसी तरह आत्मा के आभ्यन्तर स्वरूप से जो अपरिचित हैं तथा शरीरादिक को ही जिन्होंने आत्मा मान रखा है वे उसका स्वरूप जानने में असमर्थ हैं। अत: जो कछ अपनी कल्पना में आ गया उसे ही जीव मान लेते हैं। उन्हीं मिथ्यावादियों के थोड़े से भेदों का आचार्य विवेचन करते हैं कितने ही वादी ऐसे हैं जिनका कहना है कि नैसर्गिक राग-द्वेष से कलुषित जो अध्यवसान भाव हैं वे ही तो जीव हैं क्योंकि रागद्वेषात्मक अध्यवसान भाव से भिन्न अंगार के कृष्णपन की तरह जीव की उपलब्धि नहीं होती है। अर्थात् जैसे अंगार से भिन्न कृष्णपन नहीं देखा जाता, ऐसे ही रागद्वेष रूप कलुषित अध्यवसानभाव से भिन्न आत्मा की उपलब्धि नहीं होती है। कितने ही वादी ऐसे हैं जिनका कहना है कि अनादि अनन्त अथवा पूर्वापरीभूत अवयवों में एक संसरणरूप क्रिया से क्रीडा करता हुआ जो कर्म है वही जीव है क्योंकि इस कर्म से भिन्न जीव अनुभव में नहीं आता। बहुत से वादियों का कहना है कि तीव्र और मन्द अनुभाग से जिनमें भेद है अर्थात् जिनमें कभी तो तीव्र रागादिक होते हैं और कभी मन्द रागादिक होते हैं। जब इनकी तीव्रता होती है तब यह हिंसादि कार्यों में प्रवृत्ति करता है और जब इनकी मन्दता होती है तब दया आदि कार्यों में प्रवृत्ति करता है। इस तरह तीव्र, मन्द अनुभाग से भेद को प्राप्त तथा दुःखदायक रागरस से पूरित अध्यवसानभावों की जो संतति है वही जीव है क्योंकि इनसे भिन्न जीव की उपलब्धि नहीं देखी जाती। यदि इनसे भिन्न जीव की उपलब्धि आप के अनुभव में आती है तो स्पष्टरीति से कहो, संसार में रागादिक परिणामों के सिवाय अन्य कुछ नहीं देखा जाता। अत: इन्हीं को जीव मानना उचित है, ऐसा बहुत से ऊपरी दृष्टिवाले लोगों का प्रलाप है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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