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________________ जीवाजीवाधिकार ७५ आगे जीव और अजीव के एकरूप होकर प्रवेश करने से जीव का यथार्थ स्वरूप समझने में जो विभ्रम होता है उसे दिखाते हैं अप्पाणमयाणंता मूढा हु परप्पवादिणो केई । जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूविंति ।।३९।। अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति ।।४।। कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति । तिव्वत्तण-मंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो ।।४।। जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु के वि जीवमिच्छंति। अवरे संजोयेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ।।४।। एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा । ते ण परमट्ठवाई णिच्छयवाईहिं णिद्दिट्ठा ।।४३।। ___ (पंचकम्) अर्थ- आत्मा को नहीं जानते हुए तथा पर को आत्मा कहते हुए कितने ही ऐसे मूढ़ हैं जो अध्यवसानरूप भाव को जीव मान लेते हैं। कितने ही ऐसे मूढ़ हैं जो कर्म को ही जीव मानते हैं। कितने ही ऐसे मूढ़ हैं जो अध्यवसानभावों में तीव्र-मन्द अनुभाग को जीव मान लेते हैं। बहुत से ऐसे अज्ञानी जीव हैं जो नोकर्म–शरीर को ही जीव मान कर संतोष कर लेते हैं। कोई ऐसे हैं जो कर्म के उदय को ही जीव मानते हैं। कितने ही ऐसे हैं जो तीव्र और मन्दपनरूप गुणों के द्वारा भेदरूप को प्राप्त कर्मों का अनुभाग ही जीव है ऐसा मानते हैं। बहुत वादी ऐसे हैं जो जीव और कर्म की मिली हुई अवस्था को जीव मानते हैं और कितने ही ऐसे हैं जो कर्मों के संयोग से होनेवाली परिणति को जीव मानते हैं। इस प्रकार तथा अन्य भी बहुत प्रकार से दुष्टबुद्धिवाले मिथ्यादृष्टि जीव पर को आत्मा मानते हैं। परन्तु वे परमार्थवादी नहीं हैं, ऐसा निश्चयनय के जाननेवालों ने कहा है। विशेषार्थ- निश्चय से इस संसार में जिन्होंने उस आत्मद्रव्य का असाधारण लक्षण नहीं जाना है वे नपुंसकपन से अत्यन्त मूढ़ होते हुए पारमार्थिक आत्मा को नहीं जानकर पर को आत्मा कहते हैं। परमार्थरूप से जब तक वस्तु का यथार्थ परिज्ञान नहीं होता तभी तक मिथ्याज्ञान से पदार्थ के स्वरूप में नाना प्रकार की कल्पनाएँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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