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________________ ७४ समयसार प्रकण होता है, जिसे नट रंगभूमि सम्बन्धी विघ्नों की शान्ति के लिये स्तवन आदि करते हैं। यहाँ पूर्वरंग नामक प्रकरण को समाप्त करते हुए अमृतचन्द्राचार्य ने भेदज्ञान का स्तवन किया है।।३२।। अब आगे जीव और अजीव दोनों एक होकर प्रवेश करते हैं। सो उन दोनों में भेद को दिखलाने वाला जो ज्ञान है उसकी प्रशंसा में कलश-काव्य लिखते हैं। शार्दूलविक्रीडित छन्द जीवाजीव-विवेकपुष्पकलदृशा प्रत्याययत्पार्षदा नासंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्धं स्फुटत् । आत्माराममनन्तधाममहसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।३३।। अर्थ- जो जीव और अजीव के भेद को दिखलाने वाली विशाल दृष्टि से सभासदों को भिन्न द्रव्य की प्रतीति कराता है, जो अनादि संसार बँधे हुए ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश करने से शुद्ध है, विकासरूप है, आत्मा में ही रमण करता है, अनन्त तेज:स्वरूप है, प्रत्यक्ष तेज से नित्य उदित है, धीर है, उदात्त है, आकुलता से रहित है और मन को आह्लादित करने वाला है ऐसा सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है। भावार्थ- सम्यग्ज्ञान मन को आनन्दरूप करता हुआ विकाशरूप उदित होता है। अनादिकाल से आत्मा इसके बिना दु:खमय जीवन बिता रहा था और हीन मनुष्य के सदृश धन के अभाव में परम दुखी था। पश्चात् धन के प्राप्त होने से जैसे रङ्क मनुष्य सानन्द होता है, ऐसे ही सम्यग्ज्ञान के प्राप्त होने पर आत्मा आह्लादभाव को प्राप्त होता है। सम्यग्ज्ञान जीव और अजीव का स्वरूप दिखाकर सभासदों को यथार्थ प्रतीति कराता है, अनादिकाल से लगे हुए जो ज्ञानावरणादि कर्म हैं उनके बन्धन की विधि को ध्वस्त करने के कारण विशुद्ध है, पुष्प की कली के समान विकास को प्राप्त है, उसके रमण का स्थान आत्मा ही है अर्थात् पहले मोह के निमित्त से परपदार्थ में जाता था, अब मोह का अभाव होने से स्वीय आत्मा में ही विश्रान्त हो गया, अनन्त ज्ञेय पदार्थों को जानने वाला होकर भी आत्मतत्त्व में ही रमण करता है, अनन्त प्रकाशमय है, प्रत्यक्ष तेजकर नित्य ही उदयरूप है, धीर है, उदात्त है अर्थात् मोह के सम्बन्ध से होनेवाले विकारी भावों से पहले विकृत था, पर अब मोह का अभाव होने से शुद्ध दर्पण की तरह हो गया, केवल ज्ञेयों के बिम्ब पड़ने से ज्ञेयाकार का व्यवहार होता है। तात्त्विक दृष्टि से ज्ञान का परिणमन ज्ञानरूप ही है, आत्मा के स्वरूप को नहीं जानकर पहले नाना प्रकार की आकुलताओं से युक्त था, अब यथार्थ प्रतीति होने से निराकुल हो गया।।३३।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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