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समयसार
में यह रागादिक, मोहकर्म के विपाक से प्रतिभासमान होते हैं और उस समय अज्ञानी जीव उन्हें अपने स्वरूप मान लेता है। परन्तु जब भेदज्ञान का उदय होता है तब उपयोग की स्वच्छता में वे परमार्थ से आत्मा के नहीं हैं, ऐसा सम्यग्ज्ञानी जीवों के अनुभव होने लगता है। इस तरह भावक-भाव्यभाव का अवबोध कर मोह पद के स्थान में राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसना और स्पर्शन को रख कर सोलह पदों का पृथक्-पृथक् व्याख्यान करना चाहिये।।३०।।
अब जिस प्रकार भावक-भाव्यभाव से आत्मा को भिन्न किया उसी प्रकार ज्ञेय-ज्ञायकभाव से भी भिन्न जानना चाहिये, यह समझाने के लिये गाथा कहते हैं
णत्थि मम धम्म आदी बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को। तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विंति ।।३७।। __ अर्थ- जो ऐसा जानता है कि ये धर्म आदि द्रव्य मेरे नहीं हैं, मैं तो एक उपयोगरूप ही हूँ उसे आगम के ज्ञाता मुनीश्वर धर्मनिर्ममज्ञ कहते हैं।।
विशेषार्थ- यह जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल तथा मेरे से भिन्न जीवद्रव्य और पुद्गल हैं वे सब पदार्थ स्वरस से उत्पन्न, अनिवार्य प्रसार से युक्त तथा समस्त पदार्थों को ग्रसित करनेवाली प्रचण्ड चैतन्य शक्ति के द्वारा ग्रासीभूत होने से यद्यपि अत्यन्त अन्तर्निमग्न के समान आत्मा में प्रकाशमान हो रहे हैं तो भी मैं टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव वाला हूँ, और ये सब पदार्थ मुझसे भिन्नस्वभाव वाले हैं तथा परमार्थ से बाह्यरूपता को छोड़ने में असमर्थ हैं। अर्थात् अपना बाह्यरूप छोड़कर चेतनरूप परिणमन त्रिकाल में नहीं कर सकते, इसलिये मेरे नहीं हैं। जैसे स्वच्छता के कारण संमुखागत पदार्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित-से जान पड़ते हैं, परमार्थ से दर्पण भिन्न है और पदार्थ भिन्न हैं, दर्पण की स्वच्छता उन बाह्य पदार्थों के निमित्त से यद्यपि उन पदार्थों के आकार परिणमन को प्राप्त हो जाती है तथापि उन पदार्थों के साथ उसका तादात्म्य नहीं होता। जो दर्पण में भासमान हो रहे हैं वे सब दर्पण की स्वच्छता के विकार हैं। इसी तरह आत्मा में ऐसी निर्मलता है कि यदि प्रतिबन्धक कारण न हों तो ज्ञेय पदार्थ उसमें प्रतिभासमान होते हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि वे बाह्य ज्ञेय ज्ञान के आभ्यन्तर में चले जाते हैं, जो ज्ञान में भासमान हो रहे हैं वह ज्ञान का ही परिणमन है। अत: ये जो धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीव हैं वे आत्मा के नहीं हैं, ऐसा वहाँ समझना चाहिये। चैतन्यस्वभाव के कारण नित्य ही उपयुक्त रहनेवाला यह भगवान् आत्मा ही परमार्थ से निराकुल एक आत्मस्वरूप का वेदन करता हुआ यह जानता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, इसलिये
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