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________________ जीवाजीवाधिकार से परस्परमज्जित अवस्था भी हो रही है अर्थात् आत्मा और रागादिक विकारी भाव परस्पर मिलकर एक हो रहे हैं। परन्तु जिस प्रकार दही और खांड परस्पर मिलकर यद्यपि एकरूप प्रतीत होते हैं तथापि विवेकी जनों को दही और खाड़ का स्वाद पृथक-पृथक् अनुभव में आता है उसी प्रकार आत्मा और रागादिक की मज्जितावस्था में भी भेदज्ञानी पुरुषों को आत्मा तथा रागादिक का स्वाद पृथक्-पृथक् अनुभव में आता है। अत: मैं मोह के प्रति निर्मम ही हूँ। जीव का चैतन्यगुण के द्वारा भिन्न ही अनुभव होता है और मोहात्मक रागादिकों का आकुलतात्मक अनुभव भिन्न रूप से होता है। अत: आत्मा सदा अपने एकत्व से तन्मय स्थिति को धारण करता हुआ स्थित है तथा मोह उससे भिन्न पृथक् ही पदार्थ है। वास्तव में मोहकर्म पुद्गलात्मक है। इसका जब विपाककाल आता है तब आत्मा के उपयोग सम्बन्धी स्वच्छता की विकाररूप परिणति हो जाती है और उसी परिणति में ये रागादिक कलुषभाव अवतीर्ण होते हैं। मिथ्यात्व के निमित्त से यह आत्मा उन्हें अपने मानने लगता है। फलस्वरूप कभी अपने को क्रोधी, कभी मानी, कभी मायावी और कभी लोभी बना है। इन्हीं के द्वारा अनर्थपरम्परा का पात्र होता है। परन्तु जब भेदज्ञान का अवलम्बन करता है तब इन्हें विकृत भाव जान इससे भिन्न अपने ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव करता हुआ अनर्थपरम्परा का समूल उन्मूलन कर देता है। इस तरह भावक और भाव्य का विवेक प्रकट होता है।।३६।। अब श्री अमृतचन्द्र स्वामी इसी भाव को कलशा द्वारा प्रकट करते हैं स्वागताछन्द सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम्। नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि।।३०।। अर्थ- जो सब ओर से स्वरस के भार से भरा हुआ है ऐसे एक आत्मस्वरूप का ही मैं इस लोक में स्वयं अनुभव करता हूँ, कोई भी मोह मेरा नहीं है, मैं तो शुद्ध चैतन्यरूप तेज का भण्डार हूँ। भावार्थ- मैं शुद्ध चेतना की निधि हूँ, मोह से मेरा कोई भी सम्बन्ध नहीं है, यह तो एक औपाधिक भाव है जो निमित्तवश मेरी स्वच्छता में प्रतिभासमान होता था, कुछ मेरा स्वरूप नहीं था। जैसे स्फटिकमणि स्वभाव से स्वच्छ और निर्विकार है, किन्तु जपापुष्पादि के संयोग से उसकी स्वच्छता में लालिमा आदि अनेक रंग प्रतिभासमान होते हैं वे यद्यपि स्फटिकमणि में वर्तमानरूप से भासमान हो रहे हैं किन्तु तत्त्वदृष्टि से स्फटिक के अभेदरूप नहीं हो गये हैं क्योंकि जपापुष्पादि के वियोग में स्फटिकमणि स्वच्छ ही रहता है। इसी प्रकार आत्मा के स्वच्छ उपयोग For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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