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________________ ६८ समयसार आगे अनुभूति से परभाव का भेदज्ञान किस प्रकार होता है, यह आशङ्काकर उसका समाधान करते हैं। भेदज्ञान के दो रूप हैं-एक तो अपने आत्मा को रागादिक से भिन्न जानना और दूसरा ज्ञेय पदार्थों से भिन्न जानना। इनमें से पहले भावकमोह के द्वारा हुए जो भाव्यभाव हैं, उनसे भिन्न होने का प्रकार दिखाते हैं णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवओग एव अहमिक्को। तं मोह-णिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ।।३६।। अर्थ- मोह मेरा कोई भी नहीं है, मैं तो एक उपयोगरूप ही हूँ, ऐसा जो जानता है, आगम के ज्ञाता उसे मोह से निर्ममत्व जानते हैं। विशेषार्थ- मोह चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ, कोई भी मेरा नहीं है, अकेला केवल उपयोग स्वरूप हूँ, ऐसा जो जानता है समय के जाननेवाले उसे मोह से निर्मम कहते हैं। अर्थात् जो आत्मा ऐसा जानता है कि मेरा स्वरूप तो ज्ञानादि उपयोगरूप है, जो ये रागादिक औपाधिक भाव होते हैं वे मेरे लक्षण-स्वरूप नहीं हैं, नैमित्तिक विभाव भाव हैं, निमित्त का अभाव होने पर इनका विलय देखने में आता है, उस आत्मा को आत्मा और परके जाननेवाले तत्त्वज्ञानी जीव मोह से निर्ममता वाला कहते हैं। ___मैं सत्यार्थ रूप से ऐसा जानता हूँ कि यह जो मोह है वह मेरा कुछ भी नहीं है। जब तक मोहकर्म सत्ता में रहता है तब तक तो आत्मा कुछ भी विकार भाव करने को समर्थ नहीं होता, किन्तु जब उसका विपाककाल आता है तब आत्मा में भाव्यभाव-रागादिक होते हैं और उन भावों के उत्पन्न होने में इसकी विपाक अवस्था निमित्तभूत है। इसी फलदान की समर्थता से जब यह उदय में आता है तब आत्मा में जो रागादिक उत्पन्न होते हैं वह इसी के द्वारा होते हैं। अत: उन भावों का उत्पादक यह मोहनीय पुद्गलद्रव्यात्मक कर्म ही है, यही भावक कहलाता है। आत्मा टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव वाला है। अत: परमार्थ से विचार किया जावे तो यह भाव आत्मा का स्वभावजन्य नहीं है। इसीलिये श्रीगुरु का कहना है कि पद्गलद्रव्यात्मक मोहकर्म जिसका उत्पादक है ऐसा मोह मेरा कुछ भी नहीं है क्योंकि परमार्थ से परभाव के द्वारा पर नहीं हो सकता है। ज्ञानी मनुष्य ऐसा विचार करता है जिसकी प्रतापरूप संपदा स्वयं ही विश्व के समस्त पदार्थों के प्रकाश करने में चतुर है तथा निरन्तर विकासरूप है, ऐसे चैतन्यशक्तिरूप स्वभाव के द्वारा भगवान् आत्मा का ही अवबोध होता है। मैं एक चैतन्यस्वभाव वाला हूँ परन्तु समस्त द्रव्यों का जो परस्पर साधारण एकक्षेत्रावगाह हो रहा है उसकी अनिवार्यता-निवारण किये जाने की असमर्थता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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