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जीवाजीवाधिकार
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त्याग देता है। जब तक अज्ञान से यह आत्मा परवस्तु को अपनी जानता है तभी तक उसे अपनी मानता है और उसे ग्रहण किये रहता है। जिस समय यह ज्ञान हो जाता है कि यह तो परकीय वस्तु है तब त्यागने में विलम्ब नहीं करता है।
इस तरह यह आत्मा अनादि मोह के वशीभूत होकर अज्ञानी हो रहा है और उसी अज्ञान से परनिमित्त से जायमान रागादिक विभावों को स्वकीय मान रहा हैं जब श्रीगुरु के निमित्त से मोह का अभाव होने पर स्वकीय स्वरूप का ज्ञानी हो जाता है तब झटिति उन परभावों को त्याग देता है।।३५।।। यही बात अमृतचन्द्र स्वामी कलशा द्वारा प्रकट करते हैं
मालिनीछन्द अवतरति न यावत् वृत्तिमत्यन्तवेगा
दनवमपरभावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः। झटिति सकलभावैरन्यदीयैर्विमुक्ता
स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्बभूव।।२९।। अर्थ- अनवम-जिनसे अवम-बुरे दूसरे नहीं ऐसे-परभावों के त्याग के लिए दिये दृष्टान्त पर दृष्टि अत्यन्त वेग से जबतक प्रवृत्ति को प्राप्त नहीं होती तब तक अन्य समस्त भावों से रहित यह अनुभूति शीघ्र ही स्वयं प्रकट हो जाती है।
भावार्थ- आचार्य महाराज ने परपदार्थों के त्याग का जो दृष्टान्त दिया है उस पर दृष्टि शीघ्र ही जब तक स्थिर हो उससे पहले ही समस्त परभावों से रहित स्वानुभूति तत्काल प्रकट हो जाती है अर्थात् पर को पर जानते ही उसके त्याग में विलम्ब नहीं लगता। यहाँ परभाव के त्याग का जो दृष्टान्त है उसका यह आशय है कि जब आत्मा ने जान लिया कि ये परभाव हैं तब उनमें जो ममत्वभाव था उसका एकदम अभाव हो जाता है। यदि किसी सम्यक्तवी के चारित्रमोह का उदय हो, तो वह उनमें उदासीन हो जाता है-आसक्त नहीं रहता। परको पर जानने से ही चक्रवर्ती ९६००० स्त्रियों और षटखण्ड भरत क्षेत्र का आधिपत्य होते हुए भी उस विभव से जल में कमलपत्र की तरह अलिप्त रहते हैं, कर्दम में पड़ा हुआ सुवर्ण कम के लेप से रहित ही रहता है। बालक का दुग्धादि द्वारा पोषण करती हुई भी धाय अन्तरङ्ग से उसे अपना नहीं समझती और माता दुग्धादि द्वारा पोषण न करती हुई भी अपना समझती है। इससे यह सिद्धान्त आया कि सम्यग्ज्ञान के होनेपर परपदार्थ में ममत्वभाव का अभाव हो जाता है।।२९।।
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