SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ हैं तब विभ्रम के मूल मिथ्यात्व के जाने पर अपने को जानता है । उस काल में पर के ग्रहण का विकल्प ही नहीं होता, ज्ञान का परिणमन जानने मात्र रह जाता है । उसमें रागादि द्वारा जो इष्टानिष्ट कल्पनाओं का उदय होता था वह स्वयमेव शान्त हो जाता है। उस समय ज्ञाता ज्ञाता ही रह जाता है, त्याग और ग्रहण का विकल्प करानेवाला जो था वह सत्ता में ही नहीं रहा, विकल्प कहाँ से हो? अतः आचार्यों का कहना है कि परमार्थ से अपने स्वरूप से च्युत न होनेवाले ज्ञान का ही नाम प्रत्याख्यान है।।३४।। समयसार अब ज्ञाता के प्रत्याख्यान में कौन-सा दृष्टान्त है, यही दिखाते हैंजह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदं चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी ।। ३५ ।। अर्थ- जिस प्रकार कोई पुरुष यह परद्रव्य है, ऐसा जानकर उसे छोड़ देता है; उसी प्रकार ज्ञानी जीव समस्त परभावों को 'ये पर हैं' ऐसा जानकर छोड़ देता है। विशेषार्थ - उक्त अर्थ को आचार्य दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं। जैसे कोई मनुष्य धोबी से पराया वस्त्र लाकर तथा अपना समझ उस वस्त्र को ओढ़कर सो गया, क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं था कि यह पराया वस्त्र है। अब जिसका वस्त्र था वह धोबी से स्वकीय वस्त्र माँगने लगा। धोबी ने कहा- आपका वस्त्र अमुक के घर भूल से चला गया। इस बात को सुनकर वह शीघ्र ही जिसने अज्ञान से अपना मानकर व्यवहार में लिया था उसके घर आया और बलपूर्वक वस्त्र के अञ्चल को पकड़ कर ओढ़ने वाले को उघाड़ दिया और कहा कि भाई ! यह वस्त्र भूल से आप बदल लाये हो, अतः शीघ्र ही हमारा वस्त्र हमको सौंप दो। इस प्रकार का वाक्य श्रवणकर उसने सम्यक् रीति से परीक्षा कर यह निश्चय कर लिया कि यथार्थ में यह पराया है, तब शीघ्र ही उस वस्त्र को लौटा दिया। ऐसे ही ज्ञाता भी सम्भ्रान्ति से परकीय भावों को ग्रहण कर तथा उन्हें आत्मीय जानकर आत्मा में उन भावों का अभ्यास कर सो जाता है। अज्ञान के वशीभूत होकर उन्हें परकीय नहीं जानता । अतएव वेसुध सोते हुए की तरह कालयापन करता है। जब भाग्योदय से श्री निर्ग्रन्थ गुरु का समागम होता है तब वे गुरु समझाते हैं - भाई ! तुम तो ज्ञान- दर्शन के पिण्ड हो, एक हो, यह जो भाव हैं वे परनिमित्तक हैं, वास्तव में तुम्हारे नहीं हैं, विकारजन्य हैं तथा विकारी हैं, ऐसा शीघ्र ही प्रतिबोध कराते हैं, निश्चयकर आत्मा एक है, इस प्रकार बार-बार आगमवाक्यों को श्रवण करता हुआ आत्मा सम्पूर्ण चिह्नों से उन भावों की परीक्षा कर यह निश्चय कर लेता है कि ये जो औपाधिक भाव हैं वे पर हैं, क्योंकि परनिमित्त से जायमान हैं। इस प्रकर जानकर शीघ्र ही सम्पूर्ण विभाव-भावों को For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy