SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवाजीवाधिकार ६५ यहाँ निश्चय और व्यवहारनय के कथन द्वारा आत्मा और शरीर का भेद दिखाया गया है। जो पुरुष इस भेद को जानता है उसी ने स्वरसको शीघ्र ही अपनी ओर आकृष्ट कर लिया और उसी का बोध वास्तविक बोध है।।२८।।। इस तरह यह जीव अनादि मोहसंतान के कारण संजात आत्मा और शरीर के एकत्व संस्कार से यद्यपि अप्रतिबुद्ध रहता है तो भी दृढ़ प्रयास के कारण इसके तत्त्वज्ञान रूपी ज्योति प्रकट हो जाने पर उस नैत्रविकारी के समान जिसके कि नेत्र का फूला दूर हो गया है, शीघ्र ही प्रतिबुद्ध हो जाता है और साक्षात् द्रष्टा अपने आपको अपने आप ही जानकर, उसी की श्रद्धा कर उसी का आचरण करना चाहता है अर्थात् उसी में लीन होना चाहता है, ऐसा जीव आचार्य महाराज से पूछता है कि हे भगवन् ! स्वात्माराम अर्थात् अपने आप में ही लीन रहनेवाले पुरुष को अन्यद्रव्यों का प्रत्याख्यान करना पड़ता है, सो वह प्रत्याख्यान क्या वस्तु है? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य आगे प्रत्याख्यान का स्वरूप कहते हैं सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परे त्ति णादणं। तह्मा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं ।।३४।। अर्थ- जिस कारण सब भाव पर हैं, ऐसा जानकर साधु उनका त्याग करता है, इस कारण ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ऐसा नियम से जानना चाहिये। विशेषार्थ- जिस कारण से यह भगवान् ज्ञाता आत्मद्रव्य, अन्य परद्रव्य के स्वभाव से होनेवाले सम्पूर्ण भावों को परत्वरूप से जानकर त्यागता है, क्योंकि वे सम्पूर्ण परभाव अपने स्वभाव से व्याप्त नहीं हैं। इसीलिये जो पहले जानता है वही पश्चात् उन्हें त्यागता है, क्योंकि जो ही आत्मा जाननेवाला है वही आत्मा त्याग करनेवाला है, अन्य त्याग करनेवाला नहीं है, इस प्रकार आत्मा में निश्चय करके प्रत्याख्यान के समय प्रत्याख्येय पदार्थ-त्यागने योग्य पदार्थ रूप उपाधि से प्रवृत्ति में आया जो (व्यवहार से) कर्तापने का व्यपदेश है उसके होने पर भी परमार्थ से अव्यपदेश्य ज्ञानस्वभाव से च्युत न होने के कारण ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ऐसा अनुभव करना चाहिये। भावार्थ- वास्तव में ज्ञान ज्ञेय को जानता है, न तो उसे ग्रहण करता है और न उसे त्यागता है, त्याग ग्रहणपूर्वक होता है। किन्तु अनादिकाल से एक ऐसी मोह की उपाधि इस आत्मद्रव्य से लगी हुई है कि जिसके सम्बन्ध से यह परद्रव्य को अपना मानता है और जब तक मानता है तभी तक अनन्त संसार की यातनाओं को सहता हुआ चतुर्गति का पात्र होता है। जब काललब्धि आदि निमित्त मिलते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy