SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ समयसार भी जान लेना चाहिये। व्यवहारनय से शरीर और आत्मा में एकपन कहा जाता है। निश्चय से आत्मा और शरीर एक नहीं हैं, अत: शरीर का स्तवन करने से ही आत्मा का स्तवन नहीं हो सकता, किन्तु निश्चय से आत्मा का स्तवन करने से ही आत्मा का स्तवन हो सकता है। अत: आत्म और शरीर भिन्न-भिन्न पदार्थ हैं। इस विवेचन से, जो यह शङ्का की गयी थी कि शरीर का स्तवन करने से आत्मा का स्तवन होता है उसका निरास हो जाता है।।३३।। यही भाव श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा में प्रकट करते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चया त्रुः स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः। स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे नातस्तीर्थकरस्तवोत्तरबलादेकत्वमात्माङ्गयोः ।।२७।। अर्थ- शरीर और आत्मा में एकपन व्यवहार से है, निश्चय से नहीं, अत: शरीर की स्तुति से आत्मा की स्तुति व्यवहार से है, निश्चय से नहीं। निश्चय से तो आत्मा की स्तुति आत्मा की स्तुति से ही हो सकती है। इस तरह तीर्थंकर की स्तुति विषयक प्रश्न का जो उत्तर दिया था उसके बल से आत्मा और शरीर में एकपन सिद्ध नहीं किया जा सकता।।२७।। मालिनीछन्द इति परिचिततत्त्वैरात्मकायैकतायां नयविभजनयुक्त्यात्यन्तपुच्छादितायाम् । अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव।।२८।। अर्थ- इस तरह तत्त्व के अभ्यासी मुनियों के द्वारा नयविभाग की योजना से जब आत्मा और शरीर की एकता का बिलकुल निराकरण कर दिया गया, तब स्वरस के वेग से खिंचकर एक स्वरूप प्रकट हुआ किसका ज्ञान, ज्ञान में अवतीर्ण नहीं होता? अर्थात् किसका ज्ञान, ज्ञान में प्रतिष्ठित नहीं होता? __ज्ञान के साथ अनादि काल से मोहजन्य विकारों का मिश्रितपना चला आ रहा है उसी के प्रभाव से यह जीव पदार्थों को जानकर उनमें इष्टानिष्ट का विकल्प करता है, इस विकल्प के कारण उसका ज्ञान ज्ञान में प्रतिष्ठित नहीं हो पाता। परन्तु जब मोह नष्ट हो जाता है तब उसके उदय में जायमान विकल्प कहाँ रहेंगे? इस तरह विकल्प के अभाव में ज्ञान ज्ञान में प्रतिष्ठित हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy