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________________ जीवाजीवाधिकार वाले समस्त अन्यभावों से परमार्थतया भिन्न अनुभव करता है वही निश्चय कर जितमोह जिन है यह द्वितीय निश्चय-स्तुति है। __इस प्रकार जो आत्मा मोह के उदय से आत्मा में होनेवाले रागादिक भावों को भेदज्ञान के बल से औपाधिक जान उनसे अपने आत्मा को पृथक् करने का अभ्यास करता है तथा इसी के लिए श्रेणी बढ़ाने की चेष्टा करता है वह दशम गुणस्थान के अन्त में मोह का क्षयकर क्षीणमोह हो जाता है। __यहाँ गाथा में जिस प्रकार मोह को लेकर व्याख्या की गयी है उसी प्रकार मोहपद को बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन इन सोलह की व्याख्या करना चाहिये।।३२।। आगे भाव्यभावकभाव का अभाव होने पर आत्मा की जो अवस्था होती है उसका वर्णन करते हुए तृतीय निश्चयस्तुति कहते हैं जिदमोहस्स दु जइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स। तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि।।३३।। अर्थ- मोह को जीतनेवाले उस साधु का मोह जब क्षीण हो जाता है अर्थात् सत्ता से नष्ट हो जाता है तब निश्चय के जाननेवाले महापुरुषों के द्वारा वह क्षीणमोह कहा जाता है। विशेषार्थ- यहाँ पर निश्चय से पूर्वप्रक्रिया के द्वारा जो आत्मा, अपने आत्मा के मोह को तिरस्कृतकर प्रकट हुए ज्ञानस्वभाव से युक्त आत्मा का अनुभव करता हुआ जितमोह होता है वही स्वभावभाव की भावना की कुशलता के बल से जब मोह की सन्तति का इस तरह अत्यन्त नाश करता है कि जिस तरह वह फिर उत्पन्न न हो सके, तब उसका मोह क्षीण हो चुकता है अर्थात् सत्ता से पृथक् हो जाता है और वह भाव्यभावकभाव का अभाव होने से एकत्वभाव में स्थित होता हुआ टोत्कीर्ण परमात्म अवस्था को प्राप्त होकर क्षीणमोह जिन कहलाने लगता है। इस प्रकार तृतीय निश्चयस्तुति जानना चाहिये। इसी प्रकार मोहपद को बदलकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन सोलह सूत्रों की व्याख्या करना चाहिये? पहले सामान्यरूप से उद्यम था अर्थात् मोहादिप्रकृतियों के उपशम करने का प्रयास था और अब एकदम नाश कर क्षीणमोह होने का लक्ष्य है। इसी तरह और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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