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समयसार
का जो अवबोध है, यही उनका जीतना है।
जब आत्मा इन द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा भावेन्द्रियों के विषयभूत रूपादिकों से अपने आपको भिन्न जान लेता है तब इन्द्रियजन्य ज्ञान और उनके विषयभूत रूपादिक पदार्थों में जो ज्ञेय-ज्ञायक संकरदोष आता है वह स्वयं दूर हो जाता है तथा उसके दूर होने से आत्मा अपने टङ्कोत्कीर्ण एकपन में स्वयं स्थित हो जाता है। जैसे टाँकी के द्वारा पत्थर में उत्कीर्ण आकार स्थित रहता है ऐसे ही आत्मा भी अपने एकपन में स्थित हो जाता है।
इस प्रकार जो समस्त विश्व को जानकर भी उसके ऊपर तैर रहा है, प्रत्यक्ष उद्योतरूप होने से जो अन्तरङ्ग में निरन्तर प्रकाशमान रहता है, अनपायी-अनश्वर है, स्वत: सिद्ध है और परमार्थसत् है ऐसे भगवान् ज्ञानस्वभाव के द्वारा जो आत्मा को अन्य समस्त द्रव्यों से पृथक् जानता है वह जितेन्द्रिय जिन है, यह एक निश्चय-स्तुति है।।३१।।
अब भाव्यभावक संकरदोष का परिहार करते हुए दूसरी निश्चय-स्तुति कहते हैं
जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुणइ आदं। तं जिदमोहं साहुं परमट्टवियाणया विति ।।३२।।
अर्थ- जो मुनि मोह को जीतकर ज्ञानस्वभाव से अधिक अपने आत्मा को जानता है उस मुनि को परमार्थ के जाननेवाले 'जितमोह' कहते हैं।
विशेषार्थ- आत्मा के साथ मोहकर्म सन्ततिरूप से अनादि से है, जब उसका उदय काल आता है तब आत्मा में मोह, राग, द्वेषभाव रूप परिणति होती है। दर्शनमोह के उदय में मिथ्यात्व और चारित्रमोह के उदय में रागादिक होते हैं और आत्मा उन्हीं परिणामों के अनुकूल उस काल में अपनी प्रवृत्ति करता है। इस तरह फल देने में समर्थ होने से मोह भावक है और तदनुरूप परिणति करने से आत्मा भाव्य है। जब जीव को तत्वविचार के द्वारा अपने स्वरूप का अवबोध होता है तब वह बलपूर्वक मोह को तिरस्कृत कर अपने आत्मा को उससे पृथक कर लेता है। उसी समय जो भाव्यभावक संकरदोष था उसका अभाव हो जाता है। उसका अभाव होने पर आत्मा टङ्कोत्कीर्ण रूप से अपने एकत्व में स्थित हो जाता है।
इस प्रकार एकत्वस्वभाव में स्थित आत्मा को जो समस्त विश्व के ऊपर तैरने वाले, प्रत्यक्ष उद्योतरूप होने से अन्तरङ्ग में निरन्तर प्रकाशमान, अनपायी, स्वत: सिद्ध और परमार्थसत् भगवान् ज्ञानस्वभाव के द्वारा द्रव्यान्तर के स्वभाव से होने
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