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समयसार
इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी। मण्णदि हु संथुर। वंदिदो मए केवली भयवं ।।२८।।
अर्थ- जीव से भिन्न इस पुद्गलमय शरीर की स्तुति कर मुनि मानता है कि मेरे द्वारा केवली भगवान् स्तुत किये गये हैं अर्थात् मैने केवली भगवान् की स्तुति की है, वन्दना की है।
विशेषार्थ- जैसे रजत और सुवर्ण पृथक्-पृथक् पुद्गल हैं, रजत में पाण्डुरपन (श्वेतपन) रहता है और सुवर्ण में पीलापन। दोनों ही अपने-अपने लक्षणों से भिन्न-भिन्न सत्तावाले हैं। परन्तु जब दोनों गलकर एक पिण्ड हो जाते हैं तब ऐसा व्यवहार होता है कि सुवर्ण पाण्डुर रंग वाला है, वास्तव में सुवर्ण पाण्डुर रंगवाला नहीं है, केवल चाँदी के साथ सम्बन्ध होने से ऐसा व्यवहार होता है। इसी तरह शरीर के धर्म शुक्ल-लोहितादि हैं, उनके स्तवन करने से परमार्थतया शुक्ल-लोहितादि गुणों से रहित तीर्थंकर केवली भगवान् का स्तवन नहीं होता, किन्तु अनन्तज्ञानादि गुणों के द्वारा ही उनका स्तवन होता है। अत: निश्चयनय का कहना है कि शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन अनुपपन्न ही है। ____ अब यहाँ यदि कोई यह आशङ्का करे कि जो शरीर की स्तुति की, वह व्यर्थ है? सो नहीं, उसका यह तात्पर्य है कि व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है, निश्चय की दृष्टि से असत्यार्थ है। छद्मस्थ अल्पज्ञानी को आत्मा का साक्षात् बोध नहीं होता, अत: शरीर की सोम्यता देख वे आत्मा के वीतरागभावों का अनुमान करते हैं। जैसे हमें क्षुधारोग नहीं दिखता, परन्तु जब उदर खाली हो जाता है तब हमें भोजनविषयक इच्छा होती है और भोजन करने के अनन्तर वह इच्छा शान्त हो जाती है, अत: हमें क्षधा-निवृत्ति का अनुमान होता है। ऐसे ही शरीर की सौम्य आकृति से शान्त भावों का और विषम आकृति से क्रोधादि भावों का अनुमान होता है। अत: निचली अवस्था में व्यवहारनय परमार्थ का ज्ञायक होने से कार्यकारी है। वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार होने के अनन्तर उसकी आवश्यकता नहीं रहती। जैसे कोई मनुष्य समुद्र के उस पार जाने के लिये नौका पर आरूढ़ हुआ, उसका जबतक वह तीरपर नहीं पहुँचा है तबतक नौका पर आरूढ होना कार्यकारी है, अभीष्ट स्थान पर पहुँच जाने के पश्चात् उसकी आवश्यकता नहीं रहती, अत: निश्चयनय से शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन नहीं हो सकता।।२८।।
यही दिखाते हैंतं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ।।२९।।
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