________________
जीवाजीवाधिकार
अर्थ- वह शरीर का स्तवन निश्चय से ठीक नहीं है क्योंकि जो शरीर के गुण हैं वे केवली भगवान् के गुण नहीं हैं। जो केवली भगवान के गुणों का स्तवन करता है वही पुरुष परमार्थ से केवली प्रभु का स्तवन करता है।
विशेषार्थ- जैसे चाँदी का जो पाण्डुरपन गुण है वह सुवर्ण में नहीं है, अत: चाँदी के पाण्डुरपन गुण के कथन से सुवर्ण का कथन नहीं हो सकता। सुवर्ण का जो गुण है उसी के कथन से सुवर्ण का कथन हो सकता है अर्थात् सुवर्ण पीत रंगवाला है ऐसा कथन ही सुवर्ण का जतानेवाला है। ऐसे ही शरीर के गुण शुक्ललोहितादि के कथन से तीर्थंकर केवली भगवान् का कथन नहीं हो सकता, क्योंकि यह गुण तीर्थकर भगवान् के नहीं हैं, उनके गुण तो सर्वज्ञता तथा वीतरागता आदि हैं, उन्हीं के स्तवन से निश्चय से तीर्थंकर केवली का स्तवन होता है।।२९।।
__ अब यहाँ पर आशङ्का होती है कि शरीर के स्तवन करने से शरीर के अधिष्ठाता जो तीर्थंकर भगवान् हैं उनकी स्तुति क्यों नहीं होती? उसी का उत्तर देते हैं
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होति ॥३०॥
अर्थ- जिस प्रकार नगर का वर्णन करने पर राजा का वर्णन किया हुआ नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के गुणों का स्तवन करने से केवली भगवान् के गुणों का स्तवन नहीं होता है।
विशेषार्थ- नगर अन्य वस्तु है और राजा अन्य है, नगर के जो विशेषण हैं वे सब राजा में नहीं पाये जाते हैं। नगर का वर्णन इस प्रकार है
प्राकारकवलिताम्बरमुपवनराजीनिगीर्णभूमितलम्।
पिबतीव हि नगरमिदं परिखावलयेन पातालम्।।२५।। अर्थ- जिसने अपने प्रकार से आकाश को कवलित कर लिया है और बाग-बगीचों के समूह से जिसने पृथिवी तल को व्याप्त कर रखा है ऐसा यह नगर परिखा के चक्र से ऐसा जान पड़ता है मानो पाताल को ही पी रहा हो।
इस प्रकार नगर का वर्णन होने पर भी नगर के अधिष्ठाता राजा का वर्णन नहीं होता, क्योंकि उसमें प्राकार, उद्यानराजी और परिखावलय का अभाव है। अब तीर्थंकर के शरीर का स्तवन देखिए
नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यम्। अक्षोभमिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति।।२६।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org