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जीवाजीवाधिकार
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आगे आचार्य महाराज इस पूर्वपक्ष का उत्तर देते हैंववहारणयो भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एकट्ठो ।।२७।।
अर्थ- व्यवहारनय कहता है कि जीव और शरीर एक हैं परन्तु निश्चयनय का कहना है कि जीव और शरीर कभी एक नहीं हो सकते।
विशेषार्थ- लोक में उपचार अथवा प्रयोजन देखकर व्यवहार की प्रवृत्ति होती है। जैसे लड़के को तेज:स्वभाव देखकर उसको लोक कहने लगता है'माणवकोऽग्निः'- यह बच्चा अग्नि है। यहाँ क्या बालक अग्नि है? नहीं, किन्तु अग्नि के सदृश तेजस्वी देखकर यह व्यवहार होता है। अथवा यह भी व्यवहार होता है—'चन्द्रमुखी भार्या', तो क्या सचमुच ही भार्या चन्द्रमुखी है? नहीं, किन्तु आह्लादकारित्व धर्म की समानता देख यह व्यवहार जैसे होता है वैसे ही शरीर के साथ आत्मा का एकक्षेत्रावगाह होने से शरीर को आत्मा कहने का व्यवहार होता है। जिस प्रकार प्रतिदिन मन्दिर में मूर्ति के दर्शन करते समय हम यह व्यवहार करते हैं कि इस मूर्ति से तो वीतरागता टपक रही है। यद्यपि वीतरागता आत्मा की परिणति का नाम है सो वह तो हममें उत्पन्न हो रही है। पर मूर्ति उसका निमित्त है, अत: उसका मूर्ति में उपचार करते हैं। इसी प्रकार शरीर में आत्मा का व्यवहार है। व्यवहारनय का कहना है कि जीव और शरीर एक हैं। परन्तु निश्चयनय का कहना है कि ये दोनों एकार्थ नहीं हैं, भिन्न-भिन्न हैं।
जैसे इस लोक में चाँदी और सोने को गलाने से एक पिण्ड हो जाता है और उसमें एकत्व का व्यवहार होने लगता है वैसे ही आत्मा और शरीर इन दोनों के एक क्षेत्र में स्थित होने से दोनों की जो अवस्थाएँ हैं यद्यपि वे भिन्न-भिन्न हैं तथापि उनमें एकपन का व्यवहार होने लगता है। निश्चय से ये दोनों एक नहीं हैं क्योंकि
आत्मा उपयोगस्वभाव वाला है और शरीर अनुपयोग स्वभाव वाला है। इन दोनों में पीत-पाण्डुरत्व स्वभाव वाले सुवर्ण और चाँदी की तरह अत्यन्त भिन्नपन होने से एकार्थपन नहीं है, नानापन ही है, यह नयविभाग कहता है। अत: व्यवहारनय से ही शरीर के स्तवन द्वारा आत्मा का स्तवन उपपन्न होता है। शरीर को ही आत्मा माननेवाले अप्रतिबुद्ध शिष्य से आचार्य कहते हैं-भाई! तू इस नयविभाग से अनभिज्ञ है, नयविभाग को समझ, तो तेरी शरीर और आत्मा में एकत्वबुद्धि दूर हो जावेगी।।२७।।
यही बात आचार्य अगली गाथा में दिखाते हैं
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