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समयसार
भी है और द्वेषी भी है, क्योंकि वैसा अनुभव में आता है। प्रवचनसार में भी कुन्दकुन्द स्वामी ने स्वयं कहा है
परिणमदि जेण दव्वं तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं । तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो ।।८।। जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो।
सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हु परिणामसब्भावो ।।९।। अर्थ- द्रव्य जिस काल में जिसरूप परिणमन करता है उस काल में वह तन्मय हो जाता है, ऐसा कहा गया है। इसीलिये धर्मरूप परिणत आत्मा धर्म है, ऐसा मानना चाहिये। जीव जिस समय शुभ अथवा अशुभ रूप परिणमन करता है उस समय वह शुभ तथा अशुभ कहा जाता है और जिस समय शुद्धरूप परिणमता है उस समय शुद्ध होता है।
जिस काल में आत्मा के साथ औपाधिक भावों का सम्बन्ध होता है उस काल में आत्मा के जो दर्शन, ज्ञान, चारित्रगुण हैं वे मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणमन करने से मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्र शब्दों से कहे जाते हैं और आत्मा के अनन्त संसार के कारण होते हैं। परन्तु जब भेदज्ञान का उदय होता है तब सब स्वांग विलय हो जाता है। जब तक भेदज्ञान का उदय नहीं हुआ तभीतक जीव इस पुद्गलद्रव्य को निज ही अनुभव करता है। इसी अज्ञानी जीव को आचार्य प्रतिबोधन कराते हैं।
रे आत्मघाती! हाथी की तरह जो तुम्हारा ज्ञेयमिश्रित ज्ञान के भक्षण करने का स्वभाव है उसे तुम त्यागो। हाथी का ऐसा स्वभाव होता है कि वह सुन्दर भोजन
और घासादि पदार्थों को एकमेक कर खाता है। इसी तरह यह आत्मा अनादि काल से मोह के वशीभूत होकर परपदार्थों के साथ ज्ञान का स्वाद लेता है। वास्तव में परपदार्थ ज्ञान में नहीं आता है परन्तु अज्ञानी जीव की दशा ऐसी ही हो रही है कि वह ज्ञान में ज्ञेय को संपृक्त कर ही उसका अनुभव करता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि जिसने संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दूर हटा दिया है ऐसे सर्वज्ञ भगवान् के सर्वदर्शी ज्ञान ने जीव को नित्योपयोगरूप लक्षण वाला कहा है। वह यदि जडात्मक पुद्गलद्रव्यरूप हो जाता तो 'पुद्गलद्रव्य मेरा है' ऐसा तुम्हारा अनुभव ठीक होता। सो तो है नहीं। यदि किसी प्रकार पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो जावे
और जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य रूप हो जावे तो लवण के उदक की तरह ‘पुद्गलद्रव्य मेरा है' ऐसा तुम्हारा अनुभव यथार्थ हो जावे, सो तो किसी क्षेत्र और काल में ऐसा होना ही असंभव है। अर्थात् यह कभी नहीं हो सकता कि जीवद्रव्य पुद्गलरूप हो जावे और पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो जावे। जैसे खारापन लक्षण से युक्त लवण उदकरूप
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