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________________ जीवाजीवाधिकार हो जाता है-पानी बन जाता है और तरलरूप लक्षण से युक्त उदक लवण बन जाता है। क्योंकि खारापन और तरलपन इन दोनों के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। सांभर झील का जो जल है वह लवणरूप हो जाता है और वही लवण वर्षा का निमित्त पाकर जलरूप हो जाता है। परन्तु नित्योपयोग लक्षण वाला जीवद्रव्य कभी पुद्गलद्रव्य रूप नहीं होता और निरन्तर अनुपयोग लक्षण वाला पुद्गलद्रव्य कभी जीवद्रव्य रूप नहीं होता, क्योंकि उपयोग और अनुपयोग का प्रकाश और अन्धकार के समान एक साथ रहने में विरोध है। इसलिये जीव का पुद्गल रूप और पुद्गल का जीवरूप परिणमन नहीं हो सकता, अतएव पुद्गलद्रव्य मेरा है, यह अनुभव सर्वथा असंभव है। जब ऐसा है तब हे चेतन! जो चैतन्यद्रव्य है वही मेरा है, ऐसा अनुभव करना तुम्हें योग्य है। अनादिकाल से मोह के द्वारा निजात्मद्रव्य का ज्ञान न होने से परको अपना मानने का जीव का अभ्यास बन रहा है। इसी अभ्यास के बल से शरीर को अपना मानता है तथा शरीर के सम्बन्धी जो-जो हैं उन्हें अपने मानकर निरन्तर उनके रखने की चेष्टा में तन्मय रहता है। आचार्य समझाते हैं-भाई! देख, श्रीसर्वज्ञ भगवान् ने जीवद्रव्य को ज्ञानस्वरूप कहा है और पुद्गलद्रव्य को जड़ कहा है। ये दोनों पूर्व-पश्चिम दिशा की तरह अत्यन्त भिन्न हैं अत: यह जो तेरा परपदार्थ को अपना मानने का अज्ञान है उसे छोड़ और अपना जो चेतनस्वरूप है उसका अनुभव कर, इसी में तेरा कल्याण है। श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा द्वारा शरीर से एकत्वभाव के छोड़ने का उपदेश देते हैं मालिनीछन्द अयि! कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्। पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।।२३।। अर्थ- हे भाई! तू किसी प्रकार महान् कष्ट से मरणपर्यन्त का भी कष्ट उठाना पड़े तो उठाकर तत्त्वों का कौतूहली होता हुआ शरीर का एक मुहूर्त पर्यन्त पड़ोसी होकर आत्मा का अनुभव कर, जिससे पृथक् विलसते हुए अपने आप का अवलोकन कर तू शीघ्र ही शरीर के साथ एकपन के मोह को छोड़ सके। ____ भावार्थ- यह आत्मा अनादिकाल से शरीर को अपना मानता आ रहा है। यदि दैवयोग से इसका आसन्न संस्कार रह जावे तो परसे भिन्न आत्मा को जानकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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