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________________ जीवाजीवाधिकार पुद्गलद्रव्य मेरा है, परन्तु सर्वज्ञ के ज्ञान में देखा गया और निरन्तर उपयोगलक्षण से युक्त जो जीव है वह पुद्गलद्रव्य कैसे हो सकता है जिसे तू कहता है कि यह मेरा है। यदि जीव पुद्गलद्रव्य रूप हो जावे और पुद्गलद्रव्य जीवपन को प्राप्त हो जावे तो ऐसा कहा जा सकता है कि यह पुद्गलद्रव्य मेरा है ( परन्तु ऐसा नहीं है ) । ५३ विशेषार्थ- संसार में जितने द्रव्य हैं सब स्वकीय-स्वकीय चतुष्टय द्वारा निरन्तर परिणमन कर रहे हैं। एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ तादात्म्य नहीं होता, किन्तु एकक्षेत्रावगाह होने से भ्रमवश दिखाई देता है कि एक हैं । अन्य की कथा तो दूर रही, पुद्गलद्रव्य जितनी संख्या द्वारा भगवान् के ज्ञान में आया है उनमें एक परमाणु भी अन्य परमाणु के साथ तादात्म्य से नहीं मिलता, फिर जीव और पुद्गल का मिलना तो दूर ही है। ऐसा देखा जाता है कि स्फटिकमणि अति स्वच्छ है, परन्तु जब उसके साथ रक्त, हरित, पीत आदि नाना रंगविशिष्ट जपापुष्प, कदली, काञ्चन आदि पदार्थों का संयोग हो जाता है तब उन पदार्थों के संयोगरूप उपाधि से स्फटिकमणि की जो स्वच्छता है वह तिरोहित हो जाती है। उसके स्वाभाविक स्वच्छ भाव के तिरोहित होने से स्फटिकमणि लाल, हरा, पीले रंग का दिखता है । इसी तरह आत्मद्रव्य स्वाभाव से ज्ञायक है, स्वच्छ है, परन्तु अनादिकालीन मोहकर्म के अवान्तर भेदमोह, राग, द्वेष के उदय होने पर मोह, राग, द्वेषरूप उपाधि के द्वारा उसकी जो स्वच्छता है वह तिरोहित हो जाती है। उसके तिरोहित हो जाने से विवेक-ज्योति के अस्तंगत होनेपर महान् अज्ञान के द्वारा विमोहित हृदयवाला जीव भेद को न कर यह जो औपाधिक मोह- -राग-द्वेष भाव हैं उन्हें स्वीकृत करता हुआ ऐसा मानता है कि यह जो पुद्गलद्रव्य है वह मेरा है, ऐसा ही वह निरन्तर अनुभव करता है। जिस व्यक्ति ने यह नहीं जाना है कि स्फटिकमणि में जपापुष्पादिक परद्रव्य के सम्बन्ध से यह रक्त, हरति, पीत रंग भासमान हो रहे हैं वह मनुष्य स्फटिक को ही लाल, हरा और पीला मानता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं । जब कामलारोग हो जाता है तब शङ्ख पीला भासमान होता है और जब दूरत्वादि दोष से रसरी में सर्प की भ्रान्ति हो जाती है तब रसरी में सर्पज्ञान असंभव नहीं । यद्यपि स्फटिकमणि स्वभाव से न तो लाल है, न पीला है, न हरा है, यह सब प्रतीति औपाधिकी है, स्वभाव से तो वह स्वच्छ ही है। इसी तरह आत्मद्रव्य में जब मोहादि कर्मों का विपाककाल आता है तब मोह - राग-द्वेष की उपाधि से वह मोही है, रागी है, द्वेषी है ऐसा प्रतीत होने लगता है । यह कथन द्रव्यदृष्टि है। यदि वर्तमान पर्याय की दृष्टि से देखा जावे तो उस काल में आत्मा रागी भी है, मोही For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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