________________
समयसार
मालिनीछन्द त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीढं
रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत्। इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेकः
किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम्।।२२।। अर्थ- हे जगत्! हे संसार के प्राणियों! आजन्म से व्याप्त जो मोह है उसे अब तो त्यागो और मोक्षमार्ग के रसिकजनों को रोचक तथा उदय को प्राप्त जो ज्ञान है उसका रसास्वाद करने में उद्यत होओ। इस लोक में किसी प्रकार किसी काल में आत्मा अनात्मा के साथ एक होकर तादात्म्यभाव को प्राप्त नहीं होता है।
भावार्थ- परमार्थदृष्टि से आत्मा परद्रव्य के साथ किसी क्षेत्र व किसी काल में एकपन को प्राप्त नहीं होता है, इससे आचार्य महाराज का कहना है कि तुम्हारा इन परपदार्थों के साथ जो एकपन का मोह है, उसे त्यागों और अपना जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है उसका अनुभव करो। मोह मिथ्या है क्योंकि नश्वर है। इसी मोह के निमित्त से समस्त कर्मों का बन्ध होता है और उसी के उदय में यह जीव कर्मजन्यपर्यायों को अपनी सम्पत्ति मानता है। मोह का अभाव होनेपर यह जीव कर्मोदय से जायमान किसी भी पर्याय का स्वामी नहीं बनता, उनसे सतत उदासीन रहता है। यही कारण है कि षट्खण्ड का अधिपति इस उदयजन्य विभूति का स्वामी नहीं बनता। उदयाधीन इनका भोग करता हुआ भी अन्त में सबका त्यागकर दैगम्बरी दीक्षा का आलम्बन कर निज पद का लाभ लेता है।
आगे उसी अप्रतिबुद्धि जीव को समझाने के लिए आचार्य उपाय कहते हैं -
अण्णाण-मोहिद-मदी मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं । बद्धमबद्धं च तहा जीवो बहु-भाव-संजुत्तो ।।२३।। सव्वण्हु-णाण-दिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं । कह सो पुग्गलदव्वी-भूदो जं भणसि मज्झमिणं ।।२४।। जदि सो पुग्गलदव्वी-भूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सत्तो वुत्तुं जे मज्झमिणं पुग्गलं दव्वं ।।२५।। __ अर्थ- जिसकी बुद्धि अज्ञान से मोहित है तथा जो रागद्वेषादि बहुत भावों से सहित है, ऐसा जीव कहता है कि यह शरीरादि बद्ध और धनधान्यादिक अबद्ध
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org