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________________ जीवाजीवाधिकार ५१ हैं अथवा मैं इन परपदार्थों का हूँ, यह तो वर्तमान काल का विकल्प है। इसी तरह अतीतकाल सम्बन्धी भी विकल्प करता है। अर्थात् अतीतकाल में मेरे यह परपदार्थ थे और मैं इन परपदार्थों का था। इसी तरह आगामी काल का भी विकल्प करता है अर्थात् मेरे यह सब पदार्थ होंगे अथवा मैं इन सब पदार्थों का होऊँगा, इस तरह परद्रव्य में आत्मा को माननेवाला और आत्मा में परद्रव्य को मानने वाला अज्ञानी है। ___ अब यहाँ वस्तुस्वरूप का विचार करते हैं—अग्नि जो है वह ईंधन नहीं है क्योंकि अग्निपर्याय अन्य है और ईंधनपर्याय अन्य है। अग्नि, अग्नि ही है और ईंधन, ईंधन ही है। इनका परस्पर में घट-पट की तरह भेद है। इसी तरह अग्नि का ईंधन नहीं है और ईंधन का अग्नि नहीं है। अग्नि का ही अग्नि है और ईंधन का ही ईंधन है। इसी तरह अतीतकाल में भी अग्नि का ईंधन नहीं था और ईंधन अग्नि का नहीं था, अग्नि का ही अग्नि था और ईंधन का ही ईंधन था। इसी प्रकार जो आनेवाला भविष्यकाल है उसमें भी अग्नि का ही अग्नि होगा तथा ईंधन का ही ईंधन होगा। इस तरह जिस प्रकार किसी ज्ञानी जीव के अग्नि में अग्नि और ईंधन में ईंधन का सद्भत विकल्प होता है और उसके कारण वह प्रतिबुद्ध-ज्ञानी कहलाता है। इसी प्रकार किसी ज्ञानी जीव के मैं यह नहीं हूँ, यह परवस्तु मुझरूप नहीं है, ये परपदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं इन परपदार्थों का नहीं हूँ, अतीतकाल में ये परपदार्थ मेरे नहीं थे, मैं इन परपदार्थों का नहीं था और आगामी काल में भी ये परपदार्थ मेरे नहीं होंगे तथा मैं इन परपदार्थों का नहीं होऊँगा, इस प्रकार के सद्भूत विकल्प होते हैं तथा इनके कारण आत्मा को आत्मा और पर को पर जानता हुआ वह प्रतिबुद्ध-सम्यग्ज्ञानी कहलाता है। ऐसा सम्यग्ज्ञानी जीव ही संसार के बन्धनों से छूटने का पात्र होता है। परद्रव्य में आत्मा की कल्पना करना ही तो मिथ्याज्ञानी का लक्षण है। जैसे रज्जु में सर्प को मानने वाला मिथ्याज्ञानी है और उस मिथ्याज्ञानजन्य दु:खों का भोक्ता है। इसी प्रकार शरीर में आत्मा मानने वाला मिथ्याज्ञानी है और उसका फल जो अनन्त संसार है उसका यह भोक्ता होता है। पर में आत्मबुद्धि कराने वाला मोहकर्म है। उसके दो भेद हैं—एक दर्शनमोह और दूसरा चारित्रमोह। दर्शनमोह के उदय से यह जीव स्वरूप को भूलकर परको आत्मरूप और आत्मा को पररूप मानने लगता है तथा चारित्रमोह के उदय से पर को आत्मा का और आत्मा को पर का मानने लगता है। ये अहंकार और ममकार दोनों ही विकारी भाव हैं। इनके रहते हुये जीव अज्ञानी कहलाता है और इनके निकल जानेपर ज्ञानी कहा जाता है। श्री अमृतचन्द्र स्वामी कलशा द्वारा उन विकारीभावों के जनक मोह को दूर करने का उपदेश देते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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