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समयसार
विशेषार्थ- जैसे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णादि भावों में तथा पृथुबुध्नोदरादि के आकार परिणत पद्गलस्कन्धों में 'यह घट है' और 'घट में स्पर्श-रस-गन्धवर्णादिभाव तथा पृथुबुध्नोदरादि के आकार परिणत यह पुद्गल स्कन्ध हैं' इस प्रकार अभेदबुद्धि होती है अर्थात् स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णादि भाव तथा पृथुबुध्नोदरादि के आकार परिणत पुद्गल स्कन्ध घट से भिन्न नहीं है और इनसे भिन्न घट नहीं है, ऐसी अभेदरूप बुद्धि होती है। वैसे ही ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादिरूप अन्तरङ्ग भावकर्म तथा शरीरादिक बहिरङ्ग पदार्थरूप नोकर्म, जो कि आत्मा का तिरस्कार करने वाले हैं और पद्गल के परिणाम हैं, इनमें 'मैं आत्मा हूँ' अथवा 'आत्मा में ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्म, मोहादिरूप अन्तरङ्ग भावकर्म तथा शरीरादिक बहिरङ्ग पदार्थरूप नोकर्म हैं', इस प्रकार की अभेदानुभूति जब तक रहती है तब तक अप्रतिबुद्ध है- अज्ञानी है। अन्य वस्तु में अन्य वस्तु की सत्ता मानना यही तो मिथ्याज्ञान है।
आत्मा तो ज्ञाता-द्रष्टा है, उसमें मोहादिद्रव्यकर्म के उदय से वैभाविकशक्ति के कारण रागादिक होते हैं, जो कि विकृतभाव हैं, आत्म के निज के भाव नहीं हैं, निमित्त से उत्पन्न होते हैं तथा विनाशी हैं, उन्हें आत्मा के निज भाव मान लेना मिथ्याज्ञान का ही कार्य है। जब ये रागादिक निज भाव नहीं है तब उनमें निमित्तभूत जो मोहादिक कर्म हैं वे आत्मा के कैसे हो सकते हैं? उनसे आत्मा सर्वथा भिन्न है, क्योंकि मोहादिककर्म पुद्गलद्रव्य के पर्याय हैं। और नोकर्म रूप शरीर से तो आत्मा भिन्न ही है, इन्हें आत्म मानना स्पष्ट मिथ्याज्ञान है। ये सब भाव आत्मा को नाना प्रकार के दुखों का पात्र बना रहे हैं। इस प्रकार जब तक पर में आत्मानुभूति है तब तक यह जीव अज्ञानी ही है।
अब आचार्य दृष्टान्त द्वारा इसके पृथक् होने की पद्धति समझाते हैं, जिससे यह प्रतिबुद्ध बन सकता है। जैसे दर्पण रूपी पदार्थ है उसमें पुद्गलों का ऐसा परिणमन है कि वह स्व और पर का अवभास कराता है, इसीसे कहते हैं कि दर्पण में ऐसी स्वच्छता है जो स्वपर के अवभासन कराने में समर्थ है। जब दर्पण में अग्नि का प्रतिबिम्ब पड़ता है तब उसमें अग्नि झलकती है, इसका यह अर्थ नहीं कि दर्पण में अग्नि का प्रवेश हो गया। अन्यथा दर्पण में उष्णता और ज्वाला का भी सद्भाव होना चाहिये,सो तो है नहीं। तब दर्पण की स्वच्छता का ही विकार है जो अग्नि के सदृश प्रतीत होता है। उष्णता और ज्वाला अग्नि में ही है। उसी प्रकार नीरूप आत्मा में स्वपर का अवभासन करानेवाली ज्ञातृता है और पुद्गलद्रव्य में कर्म-नोकर्म हैं। इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा ज्ञाताद्रव्य है। उसके अन्दर एक ज्ञानशक्ति ऐसी है जिसके द्वारा वह स्वरूप और पररूप को जानता है। जिस समय आत्मा
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