________________
जीवाजीवाधिकार
४७
सततमनुभवामोऽनन्तचैतन्यचिह्न
न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः।।२०।। अर्थ- जो तीन रूपता को प्राप्त होकर भी एक रूपता से च्युत नहीं है, जो सदा उदयरूप है, स्वच्छ है तथा अनन्त-अविनाशी चैतन्य ही जिसका लक्षण है ऐसी इस आत्मज्योति का हम सदाकाल अनुभव करते हैं, क्योंकि अन्य प्रकार से साध्यसिद्धि नहीं हो सकती।
भावार्थ- यद्यपि भेददृष्टि से आत्मा सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुणों के द्वारा त्रित्व को प्राप्त हो रहा है-तीन रूप अनुभव में आ रहा है तथापि अभेददृष्टि से वह एक रूप ही है। यह आत्मा यद्यपि अनादिकालीन उपाधि से मलिन दिख रहा है तो भी स्वभाव से मलिन नहीं है, उपाधि के पृथक् होने पर स्वच्छ ही है ऐसे अनन्त चैतन्यलक्षण से शोभित आत्मा के अनुभव से ही मोक्षरूपी साध्य की सिद्धि होती है।
यहाँ शङ्काकार का कहना है कि जब आत्मा का ज्ञान के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है तब आत्मा ज्ञान की उपासना तो नित्य करता ही है, फिर उसे ज्ञान की उपासना का उपदेश किस लिये दिया जाता है? इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि ज्ञान का तादाम्य होने पर भी यह आत्मा क्षण भर के लिये भी ज्ञान की उपासना नहीं करता है। जैसे हरिण के अण्डकोष में कस्तूरी होने पर भी वह उसके लिये भटकता फिरता है। ऐसे ही हमारी आत्मा में ज्ञान का तादात्म्य होने पर भी हम एक क्षण मात्र भी उसकी उपासना नहीं करते-उसकी ओर लक्ष्य नहीं देते और मात्र निमित्तकारणों की उपासनाकर काल को पूर्ण कर देते हैं। आत्मा का ज्ञान की ओर लक्ष्य तो तब जाता है जब वह काललब्धि के मिलने पर स्वयंबुद्ध हो जावे या कोई उसे उपदेश देकर प्रबुद्ध करे। तब क्या कारण के पहले आत्मा अज्ञानी है? हाँ, नियम से अज्ञानी है क्योंकि वह निरन्तर अप्रतिबुद्ध है।
आचार्य आगे यह आत्मा अप्रतिबुद्ध कब तक रहता है, यह कहते
कम्मे णोकम्मति य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ।।१९।।
अर्थ- जब तक ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादिक भावकर्म और शरीरादिक नोकर्म में 'यह मैं हूँ' और 'ये कर्म, नोकर्म मेरे हैं' ऐसी बुद्धि रहती है तब तक निश्चय से यह जीव अप्रतिबुद्ध-अज्ञानी रहता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org