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________________ ४६ समयसार विशेषार्थ- लोक में ऐसा देखा जाता है कि जिसे धन की आकांक्षा होती है वह पुरुष जिसके यहाँ से धन का लाभ होगा उस पुरुष को जानता है, उसकी श्रद्धा करता है तथा उसके अनुकूल आचरण करता है। न तो जानने से ही धन मिलता है और न केवल श्रद्धा ही धन के लाभ में निमित्त है किन्तु श्रद्धान, ज्ञान और अनुकूल प्रवृत्ति ये तीनों ही धन के लाभ में कारण हैं। इसी तरह जिन्हें मोक्ष की कामना है उन्हें पहले ही जीव नामक पदार्थ को जानना चाहिये, उसकी श्रद्धा करनी चाहिये और फिर उसके अनुकूल आचरण करना चाहिये, यही उपाय मोक्षलाभ का है, साध्यकी सिद्धि का यही उपाय है, अन्य उपाय नहीं है। जैसे वह्नि के सत्त्व में ही धूम हो सकता है अन्यथा-वह्नि के अभाव में-धूम नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा नियम है कि कारण के सद्भाव में ही कार्य हो सकता है, कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता। ऐसे ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के सद्भाव में ही मोक्ष हो सकता है, अन्यथा नहीं, यही दिखाते हैं जैसे आत्मा का अनुभूयमान अनेक भावों का संकर होने पर भी परमभेदज्ञान की कुशलता द्वारा 'यह मैं हूँ ऐसी अनुभूति रूप जब ज्ञान होता है तब उस आत्मज्ञान के साथ ‘ऐसा ही है' ऐसा श्रद्धान होता है, उस समय अन्य समस्त भावों से रहित होकर अपने आप में नि:शङ्कभाव से स्थित रहा जा सकता है, इसलिये उसी में लीनतारूप चर्या होती है। इन तीनों की जब एकता होती है तब साध्यसिद्धि होती है और जब आबाल-गोपाल सभी को सभी काल स्वयं ही जिसका अनुभव हो रहा है ऐसे अनुभूतिस्वरूप भगवान् आत्मा के विषय में अनादिबन्ध के वश से परपदार्थों के साथ एकपन के अध्यवसाय से विमुग्ध पुरुष को ‘यह मैं हूँ' ऐसी अनुभूति रूप आत्मज्ञान नहीं होता, आत्मज्ञान के अभाव में जिस प्रकार विना जाने हुए गधे के सींग की श्रद्धा नहीं होती, उसी प्रकार आत्मा की श्रद्धा नहीं होती और श्रद्धा के अभाव में अन्य समस्त भावों का भेद न होने से नि:शङ्क आत्मा में स्थित नहीं रहा जा सकता, इसलिये आत्मा में चर्या भी नहीं होती। इस प्रकार श्रद्धान, ज्ञान और चर्या के अभाव में आत्मा की सिद्धि होना असम्भव है, क्योंकि आत्मा के मोक्ष का साधन सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं। जब उनका अभाव है तब मोक्ष का होना कैसे संभव हो सकता है? यही भाव श्री अमृतचन्द्र स्वामी निम्न कलश के द्वारा दरशाते हैं मालिनीछन्द कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्येकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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