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________________ जीवाजीवाधिकार ४९ का ज्ञान पदार्थों के जानने में उपयोग लगाता है उस समय ज्ञान की ऐसी स्वच्छता रहती है कि ज्ञेय उसमें भासमान होने लगता है। यद्यपि जो ज्ञेय भासमान हो रहा है वह ज्ञान का ही परिणमन है, ज्ञेय का नहीं, परन्तु ज्ञेय के सदृश है, अत: उसे ज्ञेयाकार कहते हैं, कुछ वह ज्ञान ज्ञेयाकार नहीं है; ज्ञान तो जैसा है वैसा ही है। यह आकार-व्यवहार भी केवल रूपगुण की मुख्यता से होता है। जब रस, गन्ध और स्पर्श का ज्ञान होता है तब कौन-सा आकार होता है? अनादिकाल से आत्मा में मोहादिभावों का उदय होने से हमारी ऐसी विपरीत बुद्धि हो रही है कि यह ज्ञेय आत्मा में प्रविष्ट हो गये। जैसे जिस समय हम दर्पण में मुख देखते हैं तब ऐसा भान होता है कि दर्पण में मुख है इत्यादि। जब अपने आप या परके निमित्त से भेदविज्ञानमूलक अनुभूति की उत्पत्ति होती है तब यह बोध होता है कि यह कर्म और नोकर्म पुद्गल के हैं, हमारी आत्मा में ज्ञातृता है-जानने की शक्ति है। इसलिये दर्पण में अग्नि के सदृश वे आत्मा में भासमान होते हैं-कुछ आत्मा के नहीं हैं। जब ऐसी अनुभूति होती है तभी आत्मा प्रतिबोध को प्राप्त हो जाता है- प्रबुद्ध कहलाने लगता है। जब तक आत्मा यह जानता है कि मैं कर्म और नोकर्म में हूँ तथा कर्म और नोकर्म मुझमें है तब तक यह अज्ञानीशब्द से कहा जाता है। जैसे कोई सीप को चाँदी मान लेवे तो उसे लोक में मिथ्याज्ञानी कहते हैं और जिस समय यह ज्ञान हो जाय कि यह चाँदी नहीं है, सीप है, उसी समय उसका अज्ञान हट जाने से वह ज्ञानी हो जाता है-इसी तरह जिस समय कर्म-नोकर्म में आत्मा नहीं है, ऐसा ज्ञान होने लगता है उसी समय मिथ्याज्ञान के अभाव से आत्मा ज्ञानी हो जाता है। अतः हमें प्रयास करना चाहिये, जिससे कर्म-नोकर्म में अहंबुद्धि न हो। इसी भाव को श्रीअमृतचन्द्र स्वामी कलशा के द्वारा दर्शाते हैं मालिनीछन्द कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूला मचलितमनुभूतिं ये स्वतो वान्यतो वा। प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावै Mकुरवदविकाराः सन्ततं स्युस्त एव।।२१।। अर्थ- जो पुरुष स्वयमेव अथवा अन्य के उपदेश से किसी प्रकार भेदविज्ञानमूलक निश्चल आत्मानुभूति को प्राप्त कर लेते हैं वे पुरुष अपने आत्मा में अनन्तपदार्थों के प्रतिविम्बित होने पर भी दर्पण के समान निर्विकार ही रहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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