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समयसार
नहीं होता। जैसे अग्नि का स्वभाव उष्ण है तो क्या वह उष्ण स्वभाव अग्नि से भिन्न है? नहीं। इसी तरह देवदत्त का ज्ञान-श्रद्धानचारित्ररूप जो स्वभाव है वह क्या देवदत्त से भिन्न है? नहीं है। इसी प्रकार आत्मा का जो ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र है, वह आत्मा से पृथक् नहीं है क्योंकि जो स्वभाव हैं वह स्वभाववान् का अतिक्रमण नहीं करता। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों आत्मा के स्वभाव हैं, अत: आत्मा का अतिक्रमण कर अन्यत्र रहने को असमर्थ हैं, अतएव ये आत्मा ही हैं, भिन्न वस्तु नहीं हैं। इससे यह स्वयमेव आ गया कि आत्मा ही उपासना करने योग्य है, यही भाव अमृतचन्द्र स्वामी कलशकाव्यों के द्वारा प्रकट करते हैं
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयम्।
मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणतः।।१६।। __ अर्थ- गुण-गुणी की भेदविवक्षा से दर्शन-ज्ञान-चारित्रगुणों के द्वारा आत्मा में तीनपन है, परन्तु स्वयं द्रव्यदृष्टि से एक है। इसीसे नयदृष्टि से यदि विचार किया जावे तो आत्मा नाना भी है और एक भी है और प्रमाणदृष्टि से विचार किया जावे तो एक ही काल में एकानेक, मेचकामेचक आदि नाना विरुद्धशक्तियों का पिण्ड है।
दर्शनज्ञानचारित्रैस्त्रिभिः परिणतत्वतः ।
एकोऽपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेण मेचकः ।।१७।। अर्थ- आत्मा द्रव्यदृष्टि से एक होता हुआ भी दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनरूप परिणमन के द्वारा व्यवहार से नानारूप का अवलम्बन करता है। जैसे मनुष्य एक होकर भी बाल, युवा, वृद्ध अवस्थाओं के भेद से नाना व्यवहार को प्राप्त होता है। ऐसे ही आत्मा एक होकर भी दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्ररूपणा से नानापन के व्यवहार का भागी होता है।
परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषैककः ।
सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ।।१८।। अर्थ- परमार्थ दृष्टि से विचार किया जावे तो व्यक्त ज्ञातापनरूप ज्योति से आत्मा एक ही है क्योंकि उसका ज्ञातृत्वस्वभाव अन्य सभी भावों को ध्वस्त करने वाला है अर्थात् ज्ञायकभाव को छोड़कर अन्य भावों को अपने में आश्रय नहीं देता। इस तरह आत्मा अमेचक-एकरूप है।
__ यहाँ अन्य भावों को अपने में आश्रय नहीं देता, इसका यह तात्पर्य नहीं कि अस्तित्वादि जो भाव अन्य पदार्थों में हैं उन्हें भी आश्रय नहीं देता। यह नहीं है, क्योंकि सामान्य गुण तो सब पदार्थों में एकरूप से रहते हैं, वे पदार्थों की भिन्नता
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