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जीवाजीवाधिकार
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अर्थ- साधु पुरुषों को निरन्तर दर्शन, ज्ञान और चारित्र सेवन करने योग्य हैं। निश्चय से दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही आत्मा हैं।
विशेषार्थ- जीव की मुक्त अवस्था साध्य है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र उसके साधन हैं, अत: साधु पुरुषों को इनकी निरन्तर उपासना करना चाहिये। तत्त्वदृष्टि से ये तीनों आत्मा ही हैं, आत्मा से भिन्न नहीं हैं, इसलिये अभेद दशा में आत्मा ही साध्य है और आत्मा ही साधन है। यही आचार्य श्रीनेमिचन्द्र ने द्रव्यसंग्रह में कहा है
सम्मइंसण-णाणं चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे।
ववहारा णिच्छयदो तत्तिय-मइयो णियो अप्पा।। अर्थ- व्यवहार से सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों मोक्षमार्ग हैं और निश्चय से इन तीन से तन्मय अपना आत्मा मोक्षमार्ग है, ऐसा जानो।
केवल गुण-गुणी की भेदविवक्षा से आत्मा और ज्ञानादिगुणों में भेदव्यवहार होता है। यदि गुण-गुणी की भेदविवक्षा न की जावे तो कोई भेद नहीं है। द्रव्य
और गण में प्रदेश-भेद नहीं, किन्तु लक्षणादि भेद है। यही श्री समन्तभद्र स्वामी ने देवागम में कहा है
द्रव्य-पर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः । परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः ।।७१।। संज्ञा-संख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः ।
प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।।७२।। अर्थ- अर्थात् प्रदेश भेदाभाव होने से द्रव्य और पर्याय में एकता है तथा परिणामविशेष, शक्तिमान् और शक्तिभाव, संज्ञाविशेष, संख्याविशेष, स्वलक्षणविशेष तथा प्रयोजनादि के भेद से उनमें नानापन है, सर्वथा नानापन नहीं है।
जिस भाव से आत्मा साध्य और साधनरूप से विद्यमान है उसी भाव के द्वारा नित्य ही उपासना करने योग्य है, ऐसा जब आपको निश्चय हो जाता है तब व्यवहार से अन्य को यह जीव प्रतिपादन करता है कि साधु पुरुष के द्वारा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही नित्य उपासना करने योग्य हैं। परमार्थ से ये तीनों ही आत्मा हैं अत: इनकी उपासना से आत्मा की उपासना हो जाती है क्योंकि इनसे भिन्न आत्मा अन्य कोई वस्तु नहीं है। जैसे देवदत्त नामक किसी पुरुषा का ज्ञान, श्रद्धान और चारित्र देवदत्त से भिन्न नहीं हैं, देवदत्त ही हैं, क्योंकि दर्शन-ज्ञान-चारित्र स्वभाव हैं और देवदत्त स्वभाववान् है। तथा स्वभाव स्वभाववान् पदार्थ से पृथक्
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