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________________ ४२ समयसार अर्थ- जो अखण्डित है अर्थात् ज्ञेयों के आकार से खण्ड-खण्ड नहीं होता है, जिस प्रकार दर्पण में नाना प्रकार के प्रतिबिम्ब पड़ने पर भी उसकी अखण्डता अक्षुण्ण रहती है, इसी प्रकार समस्त पदार्थों का ज्ञायक होने पर भी जिसकी अखण्डता अक्षुण्ण रहती है, जो अनाकुल है अर्थात् मोहादि कर्मों के विपाक से जायमान रागादि प्रयुक्त नाना प्रकार की आकुलता से रहित है, जो अनन्त है अर्थात् पर के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले क्षायोपशमिकज्ञान का जिसमें अन्त हो जाता है, अथवा पहले परिमित पदार्थों के अवबोध से सान्त व्यपदेश पाता था, अब इन दोनों (क्षयोपशम और परिमितपना) कारणों का अभाव हो जाने से जो अनन्त है, जो अन्तरङ्ग और बाह्य में जाज्वल्यमान है अर्थात् आभ्यन्तर में आत्मा को जानता है और बाह्य में बाह्य पदार्थों का प्रकाशक है, जो सहज है तथा सहज ही जिसका विलास है, जो चेतना की छलक से अतिशय भरा हुआ है, जो अतिशय सुशोभित है और लवणखिल्य की लीला का आचरण करता हुआ जो सदा एकरस का आलम्बन करता है अर्थात् सदा एक ज्ञायकभाव से भरा रहता है वह विज्ञानघन परमतेज हमारे हो। आगे सिद्धि के अभिलाषी पुरुषों को इसी आत्मा की उपासना करना चाहिये, यह कलश द्वारा कहते हैं एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैकः समुपास्यताम् ।।१५।। अर्थ- जो पुरुष सिद्धि-मोक्ष के अभिलाषी हैं उन्हें इसी ज्ञानघन आत्मा की निरन्तर उपासना करना चाहिये। यह आत्मा यद्यपि साध्य और साधक के भेद से दो प्रकार का है तथापि परमार्थ से एक है। भावार्थ- आत्मा वास्तव में तो द्रव्यदृष्टि से एक है, परन्तु कर्मजभावों से विशिष्ट जो आत्मा है वह संसारी है और कर्मजभावों से अतीत जो आत्मा है वह मुक्त है, ऐसा उसमें द्विविधपना है। जिन जीवों को काललब्धि आदि निमित्त मिल जाते हैं वे सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर साधनावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और वही साधनावस्था वृद्धिंगत होते-होते एकदिन पूर्ण सामग्री को पाकर अभीष्ट साध्यसिद्धि का लाभ कराने में समर्थ हो जाती है।।१५।। आगे दर्शन, ज्ञान और चारित्र साधक भाव हैं, अतः साध्य की सिद्धि के लिए इनकी उपासना करना चाहिये, यह कहते हैं दसण-णाण-चरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।१६।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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