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जीवाजीवाधिकार
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कहता सेव नमकीन है, कोई दालमोट को नमकीन कहता है। कहाँ तक कहा जावे, जिस-जिस वस्तु के साथ लवण का सम्बन्ध हुआ है उस-उस वस्तु को नमकीन कहते हैं, और शुद्ध लवण के स्वाद से वञ्चित रहते हैं। यद्यपि जो विशेष रूप से लवण का स्वाद आ रहा है वह स्वाद सामान्य से भिन्न नहीं है, किन्तु जो व्यञ्जनों में लुब्ध हैं वे इस सामान्य स्वाद से अपने को वञ्चित रखते हैं। इसी पद्धति से विचित्र ज्ञेयों के सम्बन्ध से सम्बन्धित जो ज्ञान है उसका घट-पट-मठादि के भेद से अनेकाकार परिणमन हो रहा है। इस काल में जो जीव ज्ञेयों में लुब्ध हैं उन्हें ज्ञेयमिश्रित ज्ञान का स्वाद नहीं आता, क्योंकि वे ज्ञेयों में लुब्ध हैं। यद्यपि जो विशेषरूप से ज्ञान का अनुभव हो रहा है, उसका सामान्य अनुभव से वास्तविक भेद नहीं है। परन्तु जो ज्ञेयों में लुब्ध हैं उन्हें इसका प्रत्यय नहीं होता है।
__वस्तुस्थिति तो ऐसी है कि जो व्यञ्जन में लुब्ध नहीं हैं उन्हें जैसे अन्य के संयोग से रहित सैन्धव (नमक) की खिल्ली का सब ओर से एक लवणरसपन होने से केवल लवण रूप से स्वाद आता है। अर्थात् लवण की कंकड़ी का किसी ओर से स्वाद लीजिये, केवल खारेपन का ही स्वाद आता है क्योंकि उसमें द्रव्यान्तर का सम्बन्ध नहीं है। इसी तरह परद्रव्य के सम्बन्ध से रहित केवल आत्मा का जो जीव अनुभव करनेवाले हैं उन्हें केवल एक आत्मा का ही आस्वाद आता है क्योंकि उसमें सब ओर विज्ञानघन वही आत्मा है, परपदार्थ का वहाँ अवकाश नहीं। है तो वस्तु ऐसी, परन्तु अज्ञानी मनुष्यों को उसकी स्वच्छता में जो ज्ञेय आते हैं उनकी ही लुब्धता होने से ज्ञेयमिश्रित ज्ञान की अनुभूति होती है। यद्यपि ऐसा होता नहीं, क्योंकि ऐसा नियम है कि न ज्ञान ज्ञेयों में जाता है और न ज्ञेय ज्ञान में आता है। जब जाता नहीं तब स्वाद कैसा? परन्तु बलिहारी अज्ञान की, जो कल्पना न करे सो थोड़ी है। परपदार्थ में निजत्व कल्पना ही दुःख का मूल कारण है, इसी को पृथक् करने के अर्थ यह सब तत्त्वज्ञान है, उसकी महिमा अपार है।
अब अमृतचन्द्र स्वामी कलश द्वारा भावना प्रकट करते हैं कि वह परम तेज हमारे प्रकट हो
पृथ्वीछन्द अखण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्बहि
महः परममस्तु न: सहजमुद्विलासं सदा। चिदुच्छलननिर्भरं सकलकालमालम्बते
यदेकरसमुल्लसल्लवणखिल्यलीलायितम्।।१४।।
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