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________________ ३८ समयसार अंश भी अन्य का अन्य में नहीं जाता। यदि एक पदार्थ अन्य रूप हो जावे तो संसार का ही अभाव हो जावे। इस आत्मा का अनुभव कब और किस जीव को होता है, यह कलश द्वारा स्वामी दिखलाते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द भूतं भान्तमभूतमेव रभसानिर्भिद्य बन्धं सुधी यद्यन्तः किल कोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात्। आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः।।१२।। अर्थ- यदि कोई भेदविज्ञानी सुबुद्धि पुरुष भूत, वर्तमान और भविष्यत् ऐसे कालत्रय सम्बन्धी बन्ध को वेग से भेदकर तथा बलपूर्वक मोह को विध्वस्त कर अन्तरङ्ग में अवलोकन करता है तो उसे दिखाई देता है—उसके अनुभव में आता है कि यहाँ एक आत्मानुभव से ही जिसकी महिमा जानी जा सकती है, जो अत्यन्त स्पष्ट है, निरन्तर कर्मकलङ्क रूपी पङ्क से रहित है तथा शाश्वत-अविनाशी है ऐसा आत्मदेव स्थायीरूप से विराजमान हो रहा है। भावार्थ- परमार्थ से आत्मतत्त्व तो आत्मतत्त्व में ही है, परन्तु हम उसे संसार के बाह्य पदार्थों में अवलोकन करते हैं। जैसे हरिण के अण्डकोश में कस्तूरी है, पर वह संसार में खोजता है, यही भूल है। इसी प्रकार आत्मा तो अपने आप में ही है किन्तु हमारी प्रकृति तीर्थ, मन्दिर तथा पुराण आदि में देखने की हो गई। जब तक बाह्य दृष्टि को त्यागकर आभ्यन्तर नहीं देखा जावेगा तब तक उसकी प्राप्ति दुर्लभ ही नहीं, असम्भव है। आगे वही आत्मदेव उपासना करने योग्य है, यह कहते हैं वसन्ततिलकाछन्द आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्धवा। आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्पकम्प मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समन्तात्।।१३।। अर्थ- शुद्धनय के द्वारा जो आत्मानुभूति होती है वही ज्ञानानुभूति है, ऐसा जानकर आत्मा में ही आत्मा को निश्चलभाव से स्थापित कर अवलोकन करना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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