________________
जीवाजीवाधिकार
३९
चाहिये। ऐसा करने से सब ओर से ज्ञानघन एक आत्मा ही निरन्तर अनुभव में आता है।
भावार्थ- अनादि काल से आत्मा का सम्बन्ध कर्मों के साथ हो रहा है और इसी से नर-नारकादि यावत् पर्याय हैं वे सब असमानजातीय दो द्रव्यों के सम्बन्ध से निष्पन्न हुई हैं, उनमें नाना प्रकार के बद्ध, स्पृष्टत्वादि भाव आत्मा के होते हैं। एक द्रव्य स्वयं बन्ध को प्राप्त नहीं होता, अत: उसमें बद्धत्वभाव मानना सर्वथा असंगत है। इसी प्रकार द्रव्य का जो नानारूप परिणमन दिखता है वह भी पर के सम्बन्ध से है। जैसे केवल परमाणु में नाना प्रकार के परिणमन नहीं हो सकते हैं और जब वही परमाणु स्कन्धरूप हो जाता है तब शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य आदि नाना भेदों को प्राप्त हो जाता है, केवल परमाणु में वे नहीं हैं। इसी तरह केवल आत्मा में नरनारकादि पर्यायें नहीं बन सकतीं, किन्तु मोहादिकर्मों के सम्बन्ध से उसी जीव की अनेक पर्यायें हो जाती हैं। केवल जीव में उन पर्यायों का अस्तित्व नहीं है, परपदार्थ के सम्बन्ध से ही इन नाना प्रकार के परिणमनों का अस्तित्व है।
इन सब परिणमनों का मूल कारण अनादि काल से आत्मा का पर अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मों से सम्बन्ध है। उनका निमित्त पाकर आत्मा में रागादिक परिणाम होते हैं और रागादिक परिणामों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणाओं का ज्ञानावरणादिरूप परिणमन हो जाता है तथा उनके सम्बन्ध से इस आत्मा का नाना प्रकार के शरीरों के द्वारा चतुर्गति में परिभ्रमण होता रहता है। जिन जीवों को इस परिभ्रमण से बचने की इच्छा है वे इन परपदार्थों के सम्बन्ध से अपने आपको सुरक्षित रखें और स्वकीय आत्मा के उस एकत्व का अनुभव करें जहाँ इन बद्ध-स्पृष्टत्व
आदि भावों का अवकाश नहीं। यही उपदेश अमृतचन्द्र स्वामी ने उपर्युक्त कलशों में दिया है-हे जगत् के प्राणिगणो! आप लोग उस सम्यक् स्वभाव का अनुभव करो, जहाँ पर ये बद्ध-स्पृष्टत्व आदि भाव ऊपर-ऊपर ही भासमान हो रहे हैं किन्तु उसके अन्तरङ्ग में प्रतिष्ठा नहीं पाते हैं क्योंकि द्रव्य स्वभाव सर्वदा नित्य है, सब प्रदेशों में प्रकाशमान हो रहा है। आवश्यकता इसकी है कि हम मोहभाव का त्यागकर उसकी ओर देखें। केवल वचनमात्र से साध्यसिद्धि होना असंभव है। जो कोई सम्यग्ज्ञानी कालत्रयसम्बन्धी बन्ध को भेदकर और बलपूर्वक मोह का घात कर अन्तरङ्ग में उस आत्मा को देखता है अर्थात् निरन्तर अभ्यास करता है उसे आत्मानुभव से गम्य महिमावाला, स्पष्ट, नित्य कर्मकलङ्क से विकल शाश्वत देवस्वरूप आत्मा का अवलोकन होता है। द्रव्यदृष्टि से देखा जावे तो आत्मा अपने स्वरूप से अभिन्न और परभाव से भिन्न है। परन्तु अनादिकाल से मोहादिकर्मों के साथ सम्बन्ध होने से नाना प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता हुआ अनेक दुःखों
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org