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________________ जीवाजीवाधिकार ३७ की अपेक्षा सुवर्ण का स्निग्धपन, पीतपन तथा गुरुपन निराला ही है। परन्तु जिसमें समस्त विशेष अस्त हो गये ऐसे सामान्य सुवर्ण स्वभाव को लेकर जब अनुभव किया जाता है तब वह विशेषपना अभूतार्थ है। ऐसे ही आत्मा के जो ज्ञान-दर्शनादि गुण हैं उनकी विशेषता से जब विचार किया जाता है तब आत्मा में अन्य द्रव्यों की अपेक्षा विशेषता भूतार्थ है क्योंकि अन्य द्रव्यों में यह विशेषता नहीं पाई जाती। और जिसमें सम्पूर्ण विशेषताओं का अभाव हो गया है ऐसे आत्मा के एकस्वभाव को लेकर यदि विचार करते हैं तो यह विशेषता अभूतार्थ है। जैसे जल में अग्नि का सम्बन्ध पाकर जब उष्णता हो जाती है तब यदि विचार किया जावे तो उसमें संयुक्तपन सत्यार्थ है और यदि जल के केवल शीतस्वभाव को लेकर विचार किया जावे तो यह संयुक्तपन अभूतार्थ है क्योंकि जल स्वभाव से उष्ण नहीं है, अग्नि के सम्बन्ध से ही उष्णता का लाभ करता है। इसी तरह आत्मा का जब कर्म सहित पर्याय के सम्बन्ध से विचार करते हैं तब उसमें संयुक्तपन भूतार्थ ही है क्योंकि विजातीय द्रव्य के सम्बन्ध को पाकर ही आत्मा और कर्मों का आनादिकाल से संयोग चला आ रहा है, इस स्थिति में आत्मा में जो संयुक्तपन है वह भूतार्थ है। और जब एकान्त से केवल स्वयंबोध स्वरूप जीव के स्वभाव को लेकर विचार किया जाता है तब वह संयुक्तपन अभूतार्थ है। इसी भाव को श्रीअमृतचन्द्र स्वामी निम्न कलशा द्वारा दरशाते हैं ___ मालिनीछन्द न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम्। अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्ताज् - जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम्।।११।। अर्थ- यह जगत् मोहरहित होकर अर्थात् मिथ्यात्व के आवरण को दूरकर सब ओर से प्रकाशमान उसी एक आत्मस्वभाव का अनुभव करे, जिसमें ये बद्ध, स्पृष्ट आदि भाव तैरते हुए भी प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं होते। भावार्थ- स्वामी कहते हैं कि ये जो बद्ध, स्पष्ट आदि भाव हैं वे आत्मस्वरूप के साथ मिलकर एकमेक नहीं हो जाते, ऊपर-ऊपर ही तैरते हैं ऐसा सब ओर विकासरूप जो आत्मस्वभाव है उसी का अनुभव करो। आत्म-स्वभाव जगत् के ऊपर ही रहता है, अनुभव में भी यही आता है कि संसार में जितने पदार्थ हैं वे सब अपनी-अपनी सत्ता लिये हुए अपने अखण्डरूप से विराजमान हो रहे हैं। एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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