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________________ ३६ समयसार कमलिनी के पत्र का विचार किया जाता है तब अवगत होता है कि कमलिनीपत्र . का स्वभाव सलिल के स्पर्श से रहित है, अत: वह जलसंयुक्तपना अभूतार्थ है। इसी प्रकार आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादिकाल से चला आ रहा है। जब उसको लेकर विचार किया जाता है तब आत्मा में बद्ध-स्पृष्ट पर्यायें भूतार्थ ही हैं ऐसा अनुभव होता है और पुद्गल जिसका स्पर्श नहीं कर सकता ऐसे आत्मस्वभाव को लेकर जब विचार किया जाता है तब बद्ध-स्पृष्ट पर्यायें अभूतार्थ हैं ऐसा प्रतीत होता है। ___ इसी तरह जब मृत्तिका का घट बनाते हैं तब उसकी पहले जल के द्वारा आर्द्रावस्था की जाती है। बाद में स्थास, कोश, कुसूल और घट की निष्पत्ति होती है। जब वह घट भग्न हो जाता है तब उसके टुकड़ों को कपाल कहते हैं तथा जब और भी छोटे टुकड़े हो जाते हैं तब उन्हें कपालिका कहते हैं। इस तरह स्थास, कोश, कुसूल, घट, कपाल और कपालिका आदि अनेक पर्यायें मृत्तिका की होती हैं, वे सब पर्यायें परस्पर में भिन्न हैं और भिन्न-भिन्न कार्य भी उनके देखे जाते हैं, अत: उन सबमें जो अन्यपना है वह भूतार्थ है। परन्तु जब सब पर्यायों में एकरूप से रहने वाले मृत्तिकास्वभाव की ओर दृष्टि देकर विचार किया जाता है तब वह अन्यपना अभूतार्थ हो जाता है। इसी तरह जीव की नर-नारकादि पर्याय को लक्ष्य कर यदि विचार किया जावे तो नारकी अन्य है, मनुष्य पर्याय वाला जीव अन्य है, सुर अन्य है, पशु अन्य है। सबके निमित्तभूत कर्म अन्य अन्य हैं तथा सब पर्यायों में अभेदरूप से रहनेवाला जो जीव का स्वभाव है उसकी विवक्षा से विचार किया जावे तो वह अन्यपना अभूतार्थ है। जैसे समुद्र में जब समीर के संचरण का निमित्त मिलता है तब नाना तरङ्गों की माला उठती है और जब समीर के संचरण का निमित्त नहीं मिलता तब तरङ्गमाला नहीं उठती। इस रूप से कभी तो समुद्र वृद्धिरूप हो जाता है और कभी हानिरूप हो जाता है अर्थात् उसकी नियतावस्था नहीं रहती। इस विवक्षा को लेकर समुद्र में अनियतपना भूतार्थ है और नित्य व्यवस्थित रहनेवाले समुद्रस्वभाव को लेकर विचार किया जावे तो वह अनियतपना अभूतार्थ है। एवं आत्मा की वृद्धि-हानिरूप पर्याय को लेकर विचार किया जावे तो उसमें अनियतपन भूतार्थ है और यदि आत्मस्वभाव को लेकर विचार किया जावे तब आत्मा तो सर्वदैव अखण्ड अविनाशी द्रव्यरूप से विद्यमान है अत: उसमें यह अनियतपन अभूतार्थ है। जैसे सुवर्ण के स्निग्धपन, पीतपन तथा गुरुपन आदि गुणों को लेकर जब विचार करते हैं तब उसमें जो विशेषपन है वह भूतार्थ है क्योंकि अन्य धातुओं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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