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जीवाजीवाधिकार
विलीनसंकल्पविकल्पजालं
प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति।।१०।। अर्थ- परभाव से भिन्न, सब ओर से पूर्ण, आदि-अन्त से रहित, एक और जिसमें औपाधिक संकल्प-विकल्पों का समूह विलीन हो गया है ऐसे आत्मस्वभाव को प्रकाशित करता हुआ शुद्धनय उदय को प्राप्त होता है।
भावार्थ- वास्तव में शुद्धनय की कोई अनिर्वचनीय ही महिमा है क्योंकि उसके होते ही पर और पर के निमित्त से जायमान रागादि विभावभावों से भिन्न आत्मा का स्वभाव भासमान होने लगता है। वह आत्मस्वभाव क्षयोपशम अवस्था में अपूर्ण रहता है, परन्तु सर्वतत्त्वावभासी केवलज्ञान के होने पर आसमन्तात् पूर्ण हो जाता है, किसीसे उत्पन्न नहीं होता और कभी नष्ट नहीं होता, इसलिये अनादि-अनन्त है, सामान्यदृष्टि से रहित है और मोह तथा राग-द्वेष से उत्पन्न होनेवाले संकल्प-विकल्पों के जाल से रहित है।।१३।।
अब उस शुद्धनय का स्वरूप कहते हैंजो पस्सदि अप्पाणं अबद्ध-पुढे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ।।१४।।
अर्थ- जो नय आत्मा को बन्ध और स्पर्श से रहित, अन्यपने से रहित, चलाचल भाव से रहित, विशेषता से रहित और संयुक्तपन से रहित जानता है उसे शुद्धनय जानो।
विशेषार्थ- जो नय निश्चय से अबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त आत्मा का अनुभव करता है वही शुद्धनय है। यहाँ पर वस्तु का विचार केवल द्रव्यस्वभाव को लेकर किया जाता है, अत: उसके निरूपण में परपदार्थ के निमित्त से जो भी अवस्था होती है वह सब अभूतार्थ कही जाती है। और यदि परपदार्थ के सम्बन्ध से उन अवस्थाओं का विचार किया जावे तो वे सब अवस्थाएँ सत्यभूत होती हैं। ____ आत्मा का जो स्वरूप उपर कहा गया है उसका अनुभव कैसे होता है? उसी को कहते हैं-ये जो बद्ध, स्पृष्ट आदि जीव की अवस्थाएँ हैं वे अभूतार्थ हैं क्योंकि परपदार्थ के सम्बन्ध से जायमान हैं। जैसे जिस काल में कमलिनी का पत्र जल में निमग्न रहता है उस काल में उसका विचार करिये। विचार करने पर अवगत होता है कि सलिल का कमलिनीपत्र के साथ जो सम्बन्ध है वह सत्य है- भूतार्थ है क्योंकि कमलिनीपत्र का जल के साथ संयोग हो ही रहा है। परन्तु जब केवल
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