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समयसार
प्रकार का है। जिसमें जो गुण तो नहीं हैं, मात्र व्यवहार के लिए उन गुणों की अपेक्षा किए बिना उसका नाम रख दिया जाता है वह नामनिक्षेप है। जैसे किसी का नाम हाथीसिंह रख दिया। अन्य वस्तु में अन्य वस्तु की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है। जैसे 'यह वही आदिनाथ हैं' इस प्रकार प्रतिमा में आदिनाथ भगवान् की स्थापना करना। यह स्थापना तदाकार और अतदाकार के भेद से दो प्रकार की होती है। वर्तमान पर्याय से अन्य अतीत और अनागत पर्याय में वर्तमान पर्याय का कथन करना द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजपुत्र और राज्यभ्रष्ट को राजा कहना। वस्तु की वर्तमान पर्याय को भाव कहते हैं, अत: भाव अर्थात् वर्तमान पर्याय को वर्तमान रूप से ही कहना भावनिक्षेप है। ये चारों ही निक्षेप अपने-अपने लक्षणों की विलक्षणता से अनुभव में आते हैं अत: भूतार्थ है-सत्यार्थ हैं और सब लक्षणों को गौण कर केवल एक जीवस्वभाव की अनुभव दशा में अभूतार्थ हैं-असत्यार्थ हैं। इस प्रकार इन नव तत्त्वों तथा प्रमाण-नय-निक्षेपों में भूतार्थ नय के द्वारा एक जीव ही प्रकाशमान है अर्थात् पदार्थान्तर का सम्बन्ध पाकर उसी की नाना पर्यायें दिख रही हैं। वास्तव में तो वह एक अखण्ड अविनाशी चैतन्य पिण्ड है। श्रीअमृतचन्द्र स्वामी कहते हैं
__ मालिनीछन्द उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं
__ क्वचिदपि न च विद्मो याति निक्षेपचक्रम् । किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वकषेऽस्मि
ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ।।९।। अर्थ- समस्त भावों को नष्ट करनेवाले शुद्धनय के विषयभूत चैतन्यचमत्कारमात्र तेजः पुञ्जस्वरूप आत्मा का अनुभव होने पर नयों की लक्ष्मी उदय को प्राप्त नहीं होती, प्रमाण अस्त हो जाता है और निक्षेपों का समूह कहाँ चला जाता है, यह हम नहीं जानते। और अधिक क्या कहें, द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता।
मोह के उदय से जो रागादिभाव होते हैं वही नाना प्रकार की कल्पनाएँ कराके विविध पदार्थों में इष्टानिष्ट बुद्धि कराते हैं। जो मोह कल्पनाओं का कारण है उसके विलीन हो जानेपर उक्त कल्पनाएँ कहाँ हो सकती हैं? आगे अमृतचन्द्र स्वामी शुद्धनय की महिमा का गान करते हैं
उपजातिछन्द आत्मस्वभावं परभावभिन्न
मापूर्णमाद्यन्तविमुक्तमेकम् ।
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