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जीवाजीवाधिकार
३३ श्रीसमन्तभद्र स्वामी ने भी देवागम स्तोत्र में ऐसा ही कहा है
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन मिथ्र्यकान्ततास्ति नः।
निरपेक्षा नया मिथ्या: सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्।। १०८।। अर्थ-निरपेक्ष अर्थात् एक-एक धर्म का कथन करनेवाले जो नय हैं वे सब मिथ्या हैं, उनका जो समूह है वह भी मिथ्या ही है और जो नय सापेक्षता को लेकर कथन करते हैं वे सम्यग् नय हैं और वही वस्तुभूत हैं तथा वही अर्थक्रिया करने में समर्थ हैं। इन्हीं स्वामी ने अरनाथ भगवान् की स्तुति में स्वयम्भूस्तोत्र में भी कहा है
सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च चे नयाः।
सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादिती ह ते।।१०१।। अर्थ- पदार्थ सत् है, एक है, नित्य है, वक्तव्य है और इनसे विपरीत असत् है, अनेक है, अनित्य है, अवक्तव्य है। इस तरह जो नय सर्वथा- निरपेक्ष होकर कथन करते हैं वे दोषयुक्त हैं और जो 'स्यात्' शब्द के सहयोग से कथंचित्सापेक्षभाव से कथन करते हैं वे इष्ट को पुष्ट करते हैं।
इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय अपने विषय द्रव्य को कहता है। पर्यायार्थिकनय का विषय विशेष अर्थात् पर्याय है। यह नय द्रव्य को नहीं देखता, किन्तु उसकी अपेक्षा रखता है। इसीसे 'स्यात्' पद की उसके साथ योजना की जाती है।
इन दोनों नयों का जो परस्पर मैत्रीभाव है वह प्रमाण है। वस्तु न केवल द्रव्यस्वरूप है और न केवल पर्यायस्वरूप है किन्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप है। अतएव श्रीकुन्दकुन्द महाराज ने लिखा है
पज्जय-विजुदं दव्वं दव्व-विजुत्ता न पज्जया हुंति।
दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणा परूविंति।।पंचास्तिकाय १२।। अर्थ- अर्थात् पर्याय के बिना द्रव्य का कोई सत्त्व नहीं और द्रव्य के बिना पर्यायों का अस्तित्व नहीं, किन्तु द्रव्य और पर्याय दोनों के अस्तित्व को लेकर ही वस्तु का अस्तित्व है। वही वस्तु का यथार्थ अवलोकन है, इसी को प्रमाण कहते हैं। दोनों नय द्रव्य और पर्याय का क्रम से अनुभव करते हुए प्रमाणभूत हैं-सत्यार्थ हैं और द्रव्य तथा पर्याय की विवक्षा से रहित शुद्ध वस्तुमात्र जीव स्वभाव की अनुभूति में वे अभूतार्थ हैं।
जिस प्रकार वस्तु को जानने के लिए प्रमाण और नय कारणरूप हैं उसी प्रकार निक्षेप भी कारणरूप है और वह नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव के भेद से चार
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