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________________ श्रीअंनत जिनस्तवन १०५ नवध्यानीथवेतरयो एनावीकार्यनो वर्तमानारोपनैगमनयनोवचन इतिषष्ठ गाथार्थ ॥ ६ ॥ प्रनुतणीविमलतानलखीजी ॥जेकरे थिरमनसेव ॥ देवचंपदतलजी॥ विमलानंदस्वयमेव॥ वि० ॥७॥ अर्थ॥ एरीते अनुजीनीविमलता नलखीनेजेषाणी थिरमन के० ढमनेसेवानक्तिकरे तेसमकेति देसविरति जीव सर्वदेवमांचंघमासमान पद परमात्मपदलहे के पामे अनादिसंततिसंयोगी नावकर्मन पाधीने दयकरीने निर्मल सिबुछ आत्मतत्वनीपूर्णतातेपामे हांस्तुतिकर्तानो नामपण देवचंब तेसुचव्यो वलिजेमध्ये विमल के निर्मलआनं दते खमेव के पोतेज तेपोतानोआनंदपोतेभोगवे एहवाअनंतधर्म पागनावरूप श्रीविमलनाथनीसेवनाकरो मोदा जीवने श्रीअरिहंत सेवन तेहजमोटोकारण अनादिनीत्रांतोटालवानो पुष्टनिमित्त ॥ ॥ ७ ॥ इतिविमल जिनस्तवनंसंपूर्ण ॥ ॥ अयश्रीअनंतजिनस्तवनलिख्यते॥ ___ दोवाहोपनुदीवीजगगुरुतुज एदेशी ॥ मूरतिहोपनमूरतिअनंतजिणंद ॥ ताहरीहोज्नुता हरीमुझनयणेवसीजी ॥समताहोपनसमतारसनो कंद ।। सहेजेहोअनुसहेजेअनुनबरसलसीजी॥१॥ अर्थ | हेअनंतनाथजिणंद ताहरी के तुमारीमूरती के मुघा तेमाहारा नेत्रनेविषेवशाचे ते मुजाकेहबी जे समताजरागध्वेषरहितपणो तेरूपरसनोकंद वलिसहेजे प्रयासविना अनुनवस्व भोगीपणो तेहना रसथीलीन तन्मदा ॥ इतिप्रथमगाथार्थ ॥ ५ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003991
Book TitleDevchandraji krut Chovishi Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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