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वरेण्य रहा है। जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि, जिनचन्द्रसूरि को युगप्रधान के . रूप में समादृत किया है। (सं० २४७, २४८ आदि)
___ मूर्तियों के अतिरिक्त चरण-पादुकाओं को भी प्रतिष्ठित किया गया जो तीर्थंकरों से लेकर सामान्य कुलजनों तक की हैं। कुछ लेख स्तम्भ, शिलापट्ट व ताम्रपटों पर भी हैं। सम्मेतशिखर पट्ट से पवित्र स्थान विशेष की पूजा परम्परा पर प्रकाश पड़ता है (सं० ४५७ एवं सं०५३१)। इसकी तुलना प्रस्तर शिलाओं पर उत्कीर्ण वाराणसी या प्रयाग पटों पर चित्रों से की जा सकती है।
एक स्तम्भ लेख (सं० ३०२) में लेखक व पाठक दोनों की मंगलकामना की गई है। कहीं यह सद्भाव आचार्य, उपाध्याय या परिवारीजनों को जाता है। ताम्रलेख (सं० ४३८) में कारीगर उमेदराज का नाम आता है जिसने लेख उत्कीर्ण किया है। संयोग से इसमें तीन उमेदों का मिलन है अर्थात् उमेदसिंह, उम्मेदपुरा और उमेदराज। इस सन्दर्भ में मथुरा से प्राप्त कार्तिकेय की कुषाणकालीन उस प्रस्तुत मूर्ति का स्मरण होता है जिसमें सभी नाम विश्व से आरम्भ होते हैं (मथुरा संग्रहालय सं० ४२.२९४९)। पिता का नाम था विश्विल जिसके चार पुत्रों ने मूर्ति की प्रतिष्ठा की। इनके नाम हैं- विश्वदेव, विश्वसोम, विश्वभव और विश्ववस्तु। मूर्ति का प्राप्ति स्थान प्रसिद्ध कंकाली या जैन टीला है जहाँ से सैकड़ों की संख्या में जैन मूर्तियां मिलीं।
प्रस्तुत पुस्तक की मूर्ति सं० २२८ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसे सम्राट अकबर के अल्लाइ संवत् ४२ वर्ष में प्रतिष्ठित बताया है। सिंहासन के नीचे संवत् १६५३ भी दिया है। अकबर की उदार धार्मिक व प्रशासनिक नीति और विशेष रूप से जैन धर्म के प्रति उसकी अभिरुचि का यह ज्वलन्त प्रमाण है। उसके द्वारा प्रचलित इलाही या अल्लाइ संवत् का प्रचलन नाम मात्र का रहा किन्तु आदिनाथ की इस मूर्ति में उसे स्थान मिलना एक असाधारण बात है और इस दृष्टि से मूर्ति का महत्व बढ जाता है।
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