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अथवा कृत वाग्द्वारे वंशेऽस्मिन् पूर्वसूरिभिः। किसी मूर्ति की प्रतिष्ठा की पृष्ठभूमि में आस्था और भावना मुख्य कारण होते हैं। किन्तु प्रतिष्ठा के अनन्तर उसके आयामों में वृद्धि होती है और वह निरन्तर होती रहती है। यह सब दृष्टि पर निर्भर होता है। कला, इतिहास, संस्कृति, भाषा-विज्ञान, मूर्ति-विज्ञान, प्रस्तर व धातु-विज्ञान, अभिलेख, लिपि-शास्त्र आदि अनेक क्षितिज खुलते हैं और अपने-अपने दृष्टिकोण से उनका अनुशीलन किया जा सकता है। इन सब में आवश्यक और विशेष महत्वपूर्ण हैं, उत्कीर्ण लेख का वाचन और छापें तैयार करना । यह बहुत दुरूह और उबाऊ कार्य है। इसमें बुद्धि के साथ सूक्ष्म-दृष्टि, धैर्य और परिश्रम अपेक्षित है। महोपाध्याय विनयसागरजी ने जिस यत्न से मूर्तिलेखों का वाचन कर हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है वह बड़ा स्तुत्य है क्योंकि इससे इतिहास तो सुरक्षित हुआ ही, भावी शोधकर्ताओं को नूतन दिशाएं भी मिली हैं।
विक्रम संवत् १०१४ से लगभग एक हजार वर्ष के अन्तराल में प्रतिष्ठापित ७५७ मूर्तियों के इस संकलन में अनेक उपयोगी सूचनाएँ गुम्फित हैं। जैन समाज गठन, कुल, गोत्र, शाखा आदि जो झलक मथुरा के प्राक् कुषाण व कुषाण-युगीन मूर्ति अभिलेखों में मिलती है, लगभग वही चित्र समीक्षाधीन पुस्तक के लेखों में है। धार्मिक आस्था का स्रोत भी अविकल
और अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है। तीर्थंकरों की मूर्तियों की प्रतिष्ठा तो स्वाभाविक थी ही किन्तु मूर्तियाँ मुनियों, आचार्यों, उपाध्यायों व परिवारीजनों की भी हैं।
लक्ष्मीनारायण (सं० ४३), गणेश (सं०६०९-६१०) आदि देवताओं की मूर्तियों की प्रतिष्ठा धार्मिक सामंजस्य के उदाहरण हैं। पद्मावती यंत्र (सं० ४२८) व अनेक सिद्ध यंत्रों की प्रतिष्ठा से संकेत मिलता है कि आध्यात्मिक या पारलौकिक सिद्धि के साथ ऐहिक कल्याण भी समाज में
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