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________________ प्राक्कथन कुछ वर्ष पूर्व मुझे जयपुर स्थित प्राकृत भारती अकादमी को देखने का सुअवसर मिला था। सतत सारस्वत साधना और उसके पुंजीभूत की प्रतिमूर्ति है यह संस्था । विस्मय, आश्चर्य और हर्ष का त्रिभुज बनाने का श्रेय है महोपाध्याय श्री विनय सागरजी को, जो विद्वत्ता, अथक परिश्रम और विनय के अथाह सागर हैं। प्राकृत भारती अकादमी स्वयं ही शोधार्थियों के लिए तीर्थ है। प्रतिष्ठा लेख संग्रह के द्वितीय भाग का प्राक्कथन मुझसे लिखाने की उनकी इच्छा मेरे लिए बड़े संकोच का प्रसंग है । अवश्य ही मेरी प्राचीन लेखों में पठन-पाठन और शोध में अभिरुचि है और इस दिशा में कुछ प्रयास अभी तक वर्तमान संस्थान ज्ञान - प्रवाह में भी चल रहे हैं । किन्तु संकोच का मूल कारण था कि मान्य लेखक का प्रथम भाग ठीक पचास वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था और उसकी भूमिका मेरे पूज्य गुरु और सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल ने काशी में विराजते हुए लिखी थी । उसके द्वितीय भाग का प्राक्कथन काशी से ही अर्द्धशताब्दी पश्चात् उनके शिष्य द्वारा लिखा जाना विचित्र और गौरवानुभूति है । पुस्तक का द्वितीय खण्ड भी प्रथम खण्ड के साथ लगभग पूर्ण हो चुका था किन्तु कतिपय व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण प्रकाशन अवरुद्ध हुआ। इस बीच प्राकृत भारती अकादमी ने शतशः ग्रन्थ प्रकाशित कर विशिष्ट कीर्ति अर्जित की। प्रस्तुत भाग के अध्ययन के समय स्व० प्रो० अग्रवालजी की प्रथम भाग के लिए लिखी भूमिका और लेखक की अपनी बात में निबद्ध सुखद और कटु अनुभव दोनों आज भी मननीय हैं। वस्तुतः द्वितीय भाग प्रथम भाग का ही वितान है । इस दृष्टि से मेरे लिए प्राक्कथन लिखना कालिदास के शब्दों में सरल हो गया है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003984
Book TitlePratishtha Lekh Sangraha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherVinaysagar
Publication Year2003
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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