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________________ आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म. तैयार होगा। कहीं-कहीं टंकणखार के स्थान पर पापडिया अथवा साजीखार डालने का विधान देखने को मिलता है । १०. बियारस-बिया नामक वनस्पति विशेष की लकड़ी के छिलकों का भुक्का (चूर्ण) करके उसे पानी में उबालने पर जो पानी प्राप्त होता है उसे बियारस समझें । इस रस को स्याही में डालने पर स्याही के कालेपन में अत्यन्त वृद्धि होती है । परन्तु ध्यान रहे कि यदि वह रस आवश्यक प्रमाण से अधिक मात्रा में स्याही में डल जाये तो स्याही बिलकुल नकामी हो जाती है, क्योंकि इसका स्वभाव शुष्क होने के कारण इसमें पड़े हुए गोंद की चिकनाई का जड़मूल से नाश कर देता है । अतः उस स्याही द्वारा लिखा हुआ लिखान सूख जाने पर तुरन्त ही स्वयं उखड जाता है । सोने-चाँदी की स्याही द्वारा लिखने हेतु हरिताल-सफेदा, थोडा अधिक प्रमाण में गोंद डालकर तैयार करें । १२. ताड़पत्रीय अङ्क अर्थात् ताड़पत्रीय पुस्तक के पृष्ठों की गणना करने हेतु लिखे गये अङ्क यथा-प्रथम पृष्ठ, द्वितीय पृष्ठ, पाँचवाँ, दसवाँ, पचासवाँ सौवाँ पृष्ठ इत्यादि । १३. 'पुरातत्त्व' में दिए गये अङ्कों के बजाय यहाँ पू. मु. श्री पुण्यविजयजी महाराज कृत 'जैन चित्रकल्पद्रुम' में मुद्रित 'भारतीय जैन श्रमण संस्कृति अने लेखनकला' लेख के साथ दिये गये अङ्क (उन अङ्कों के दो ब्लॉक) इस ग्रन्थ में मुद्रित किये गये हैं-संपादकगण । प्रस्तुत लेख की सामग्री और इससे सम्बन्धित विविध जानकारीयाँ मैं मेरे वृद्ध गुरुप्रवर्तक श्री कान्तिविजयजी महाराज और गुरुजी श्री चतुरविजयजी महाराज द्वारा प्राप्त कर सका हूँ, इस हेतु उनका आभार मानता हूँ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003982
Book TitlePrachin Lekhankala aur Uske Sadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Uttamsinh
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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