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________________ १५ प्राचीन लेखनकला और उसके साधन से उखड़ जाये तो गोंद डालने की आवश्यकता है ऐसा समझें । मिश्री का पानी एक-दो बार ही डालें । इस प्रकार तैयार हिंगोलक (हिंगळोक) का उपयोग लाल स्याही के रूप में किया जाता है। हरिताल-दगड़ी और वरगी इन दो प्रकार की हरितालों में से हमारे पुस्तक संशोधन कार्य में वरगी हरिताल उपयोगी है। इसे तोड़ने पर बीच में सुनहरी वरक सदृश पत्री दिखाई देती हैं; अतः इसे वरगी हरिताल नाम से जाना जाता है । इस हरिताल को ओखल में डालकर खूब महीन पीसें और मिश्रण को मोटे कपड़े में से छानें । पुनः ओखल में डालकर खूब पीसें । फिर उसमें गोंद का पानी डालते रहें और पीसते रहें । गोंद की मात्रा अधिक न हो इस लिए बीच-बीच में हिंगोलक (हिंगळोक) का परीक्षण करते रहें । ___सफेदा-रंगाई-पुताई के लिए जो सूखा सफेदा आता है, उसमें गोंद का पानी डालकर खूब घोंटने पर तैयार सामग्री का उपयोग संशोधन हेतु किया जाता है । अष्टगंध-मंत्राक्षर लिखने हेतु इसका उपयोग किया जाता है । इसमें- १. अगर, २. तगर, ३. गोरोचन, ४. कस्तूरी, ५. रक्तचन्दन, ६. चन्दन, ७. सिन्दूर तथा ८. केसरी-इन आठ द्रव्यों का मिश्रण होने के कारण अष्टगन्ध कहा जाता है । यक्षकर्दम-इसका उपयोगी भी मन्त्रादि लेखन हेतु किया जाता है । १. चन्दन, २. केसर, ३. अगर, ४. बरास, ५. कस्तूरी, ६. मरचकंकोल, ७. गोरोचन, ८. हिंगळोक, ९. रतंजणी, १०. सोने के वरक और ११. अंबर-इन ग्यारह द्रव्यों के मिश्रण द्वारा निर्मित होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003982
Book TitlePrachin Lekhankala aur Uske Sadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Uttamsinh
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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