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________________ प्राचीन लेखनकला और उसके साधन १३ अधिक होती है । यहाँ विशेष ध्यान रखनेवाली बात यह हैं कि लाख, कत्था हीराकसी का जिस स्याही में प्रयोग किया गया हो ऐसी किसी भी स्याही का उपयोग पुस्तकलेखन हेतु न करें । उपरोक्त लेख में वर्णित उल्लेखों में क्वचित भाषा विषयक अशुद्धि दिखाई पडे तो वाचकगण विशेष ख्याल न करें इतना अनुरोध है । सोनेरी रूपेरी स्याही : सर्वप्रथम साफ-सुथरे गेहूँ के गंदे का पानी बनाएँ। फिर उसे काँच अथवा दूसरे किसी अन्य पदार्थ द्वारा निर्मित रकाबी (पात्र) में चुपडें (लेप करें) और सोना अथवा चाँदी की जो स्याही बनानी हो उसका वरक लेकर लेप पर लगाएँ और अँगुली की सहायता से घोंटें । इस प्रकार थोडी ही देर में उस सोने अथवा चाँदी के वरक का मिश्रण बन जायेगा । तदनन्तर पुन: गोंद लगाकर वरक लगाते रहें और घोंटते रहें । इस प्रकार तैयार मिश्रण में शक्कर (मिश्री) का पानी डालकर हिलाएँ । जब मिश्रण ठण्डा होकर नीचे बैठ जाए तब उसमें बचा हुआ पानी धीरे-धीरे बाहर निकाल दें । इस प्रकार तीनचार बार करने पर जो सोना-चाँदी का मिश्रण प्राप्त होता है उसे ही तैयार सुनहरी स्याही समझें । इसमें मिश्री का पानी डालने पर गोंद की चिकनाई का नाश होता है। और सोने चाँदी के तेज (चमक) का हास नहीं होता है । यदि एक साथ ही अधिक मात्रा में सोने-चाँदी की स्याही तैयार करनी हो तो गोंद के पानी और वरक को खरल (हुमानदस्ता, ओखल) में डालते जायें और घोंटते रहें और फिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003982
Book TitlePrachin Lekhankala aur Uske Sadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Uttamsinh
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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