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आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म.
सर्वोत्तम तथा अनुकरणीय है । इसके अलावा (२-३-४) ये मध्यम प्रकार हैं । इन तीन प्रकारों से बनी हुई स्याही पहले प्रकार के बजाय पक्की तो होती है परन्तु यह उस पुस्तक को तीन शताब्दी के समयान्तराल में ही मृतवत् कर देती है । अर्थात् पुस्तक को खा जाती है । अतः इनका उपयोग नहीं करना ही अधिक उचित माना जाता है और अन्तिम दो प्रकार (५-६) ये तो कनिष्ठ तथा वर्जनीय भी हैं, क्योंकि इस विधिपूर्वक निर्मित स्याही द्वारा लिखित पुस्तक एक ही शताब्दि में यमराज को प्यारी हो जाती है । परन्तु यदि थोड़े समय में ही रद्द करके फैंक देने जैसा कुछ लिखना हो तो इन दो प्रकारों (५-६) के समान सरल एवं सस्ता उपाय और कोई भी नहीं है । टिप्पणा की स्याही :
" बोलस्य द्विगुणो गुन्दो, गुन्दस्य द्विगुणा मषी । मर्दयेत् यामयुग्मं तु, मषी वज्रसमा भवेत् ॥१॥" काली स्याही हेतु ध्यान में रखनेवाली बातें" कज्जलमत्र तिलतैलतः संजातं ग्राह्यम् ।"
"गुन्दोऽत्र निम्बसत्कः खदिरसत्को बव्वूलसत्को वा ग्राह्यः । धवसत्कस्तु सर्वथा त्याज्यः मषीविनाशकारित्वात् ।”
" मषीमध्ये महाराष्ट्रभाषया 'डैरली' इति प्रसिद्धस्य रिङ्गणीवृक्षस्य वनस्पतिविशेषस्य फलरसस्य प्रक्षेपे सति सतेजस्कमक्षिकाभावादयो गुणा भवन्ति ।"
इसके अलावा स्याही बनाने की विधि में जहाँ-जहाँ गोंद का उपयोग बताया गया है वहाँ खेर के गोंद का प्रावधान है । यदि बावळ (बबूल) अथवा नींम के गोंद का प्रयोग करना हो तो चौथा हिस्सा लें, क्योंकि खेर के गोंद के बजाय इनमें चिकनाई की मात्रा
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