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प्राचीन लेखनकला और उसके साधन
तत्तजलेण व पुणओ, धोलिज्जंती दृढं मसी होइ । तेण विलिहिया पत्ता, वच्चह रयणीइ दिवसु व्व ॥२॥" "कोरडए विसरावे, अंगुलिया कोरडम्मि कज्जलए । मद्दह सरावलग्गं, जावं चिय चि( क )गं मुअइ ॥३॥ पिचुमंदगुंदलेसं, खायरगुंदं ब बीयजलमिस्सं । भिज्जवि तोएण दृढं, मद्दह जातं जलं सुसइ ॥४॥
इति ताड़पत्रमष्याम्नायः ॥" __ इन आर्याओं का जिस पन्ने पर से मैंने लिप्यान्तरण किया है, उसमें आँकडे सलंग रखे गये हैं । इनका अर्थ देखने पर पूर्व की दो आर्या समान प्रकार की और अन्तिम दो आर्या समान प्रकार की हों ऐसा लगता है । सामान्यतः इन आर्याओं का अर्थ हम निम्नप्रकार कर सकते हैं
"कज्जलप्रायेण-काजल के समान (?) बोळ-हीराबोळ और भूमिलता (?) तथा पारे का कुछ अंश, (इन समस्त वस्तुओं को) गरम पानी में (मिलाकर सात दिन तक अथवा अधिक दिनों तक) घोंटें । (फिर) गोलियाँ बनाकर (सुखा लें । सूखने के बाद) कूटें-चूर्ण करें । १.' (जब जरूरत पड़े तब उस चूर्ण को) गरम पानी में घोंटने पर वह (लिखने योग्य) स्याही बन जाती है । उस स्याही द्वारा लिखे हुए पन्नों को (अक्षरों) को रात्रि में (भी) दिन की तरह वाँच सकते हैं । २."
"कोरे काजल को कोरी मिट्टी की बालु (रेती) में डालकर जब तक उसकी चिकनाई न मिटे तब तक अंगुलियों द्वारा बालु के साथ मर्दन करें-घोंटें । (ऐसा करने पर काजल की चिकनाई को बालु खींच लेगी ।)३.' (काजल और) नीम अथवा खेर के गोंद को बियाजन-बियारस के पानी में मिश्रित
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