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आगम प्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी म.
३. स्याही आदि ताड़पत्रीय काली स्याही-आजकल ताड़पत्र पर लिखने का रिवाज लुप्तप्रायः हो गया है, अतः इसकी स्याही बनाने का यथेष्ट स्पष्ट विधान भी नहीं मिलता है । लेकिन कुछ स्थलों पर जो अलग-अलग स्पष्ट अथवा अस्पष्ट उल्लेख प्राप्त हुए हैं, वे निम्नोक्त हैं : प्रथम प्रकार :
सहवर-भृङ्ग-त्रिफलाः, कासीसं लोहमेव नीली च । समकज्जलबोलयुता, भवति मषी ताड़पत्राणाम् ॥१॥
व्याख्या-सहवरेति कांटासेहरीओ (कढाई, परात) । भृङ्गेति भांगुरओ । त्रिफला प्रसिद्धैव । कासीसमिति कसीसम्, येन काष्ठादि रज्यते । लोहमिति लोहचूर्णम् । नीलिति गलीनिष्पादको वृक्षः तद्रसः । रसं विना सर्वेषां उत्कल्य क्वाथः क्रियते, स च रसोऽपि समवर्तितकज्जलबालयोर्मध्ये निक्षिप्यते, ततस्ताड़पत्रमषी भवतीति ॥
यहाँ कौन सी वस्तु कितने प्रमाण में लें यह स्पष्ट नहीं होता है । क्योंकि इसमें सभी वस्तुओं को इकट्ठा करने के बाद क्या करना है इसका भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है; लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि तांबे की कढ़ाई में डाल कर इन सब वस्तुओं को खूब घोंटना चाहिए जिससे प्रत्येक वस्तु एकरस हो जाये । द्वितीय प्रकार :
"कज्जलपाडग्गंबोलं, भुमिलया पारदस्स लेसं च । उसिणजलेण विधसिया, वडिया काऊण कुट्टिज्जा ॥१॥
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